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श्रावकाचार-संग्रहे
सार न अध्यातम जिसी, निज अनुभव को मूल । नहि मुनि से अध्यातमी, सर्व विषय प्रतिकूल ॥५७ विषय कषाय बराबरी, बेरी जियके नाहि ।
ज्ञान विराग विवेक से, हितू नाहि जग माहि ॥ ५८ अध्यात्म चरचा समा चरचा और न कोय । जिनपद अरचा सारिखी, अरचा और न होइ ॥ ५९ नाहिं गणाधिप से महा-चरचा - कारक जानि । नाहि सुरधिप सारिखे, अरचा कारक मानि ॥ ६० गमन न करघ गमन सो, नहीं मोक्ष सो धाम | रोधक नाहीं कर्म से हरो कर्म तजि काम ॥ ६१ शत्रु न कोई अधर्म सो, मित्र न धर्म समान । धर्म न वस्तु स्वभाव सो हिंसा-रहित बखान ॥६२ निज स्वभाव को विस्मरण, नहि ता सम अपराध । साधे केवलभाब को, ता सम और न साध ॥ ६३ नर देहा सम देह नहि, लिङ्ग न पुरुष समान । वेद नहीं नर वेद सो, सुमन समो न सयान ॥६४
स- काया सम काय नहि, पंचेन्द्री जा मांहि । पंचेन्द्री नहि मनुष से, जे मुनिव्रत धराहिं ॥६५ मुनि नहि तदभवमुक्ति से, जे केवल पद पाय । पहुँचे पंचमगति महा, चहुंगति भृमण नशाय ॥ ६६ गति नहि पंचम गति जिसी, जाहि कहें निजधाम । अविनश्वर पुर नाम जा, जा सम नगर न राम ॥६७ नाहिं शुद्ध उपयोग सो मारग सूधी होय । नाहीं मारग मुक्ति को, भव- विरक्ति सो कोय ॥ ६८ लोक शिखर सो ऊंच नहि, सबके शिरपर सोय । नहीं रसातल सारिखौ नीचो जग में जोय ॥६९ जित मन इन्द्री धीर से और न वंद्य वखानि । विषयी विकलन सारिखे, और न निद्य प्रवानि ॥७०
हि अरिष्ट अघ कर्म से, शिष्ट न सुभग समान । नाहिं पञ्च परमेष्ठि से, और इष्ट परवान ॥७१ जिन - देवल से देवल न, नहीं जैन से विम्ब । केवल सो ज्ञायक नहीं, जामें सब प्रतिविंब ॥७२ नाहि अकृत्रिम सारिखे, देवल अतिसयरूप । चैत्य वृक्ष से वृक्ष नहि, सुरतरु से हु अनुप ॥७३ जोगी जिनवर से नहीं, जिनकी अचल समाधि । निजरस भोगी ते सही, बर्जित सकल उपाधि ॥७४
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