________________
दौलतराम-कृत क्रियाकोष इन्दिय भोगी इन्द्र से, नाहिं दूसरे जानि । इन्द्रा जीत मुनीन्द्र से, इन्द्र नरेन्द्र न मानि ॥७५ राग द्वेष परपंच से, असुर और नहिं होय । दर्शन-ज्ञान-चारित्र से, असुर-नाशक न कोय ॥७६ काम-क्रोध-लोभादि से, नाहिं पिशाच बखानि । सम संतोष विवेक से. मंत्राधीश न मानि ||७७ माया मच्छर मान से, दुखकारी नहिं वीर। निगरव निकपटभाव से, सुखकारी नहिं धीर ॥७८ मैल न कोई मिथ्यात सो, लग्यो अनादि विरूप । साबुन भेद विज्ञान सो, और न उज्ज्वलरूप ॥७९ मदन दर्प सो सर्प नहि, डस देव नर नाग । गरुड़ न कोई शील सो, मदन जीत बड़भाग ।।८० मैल न मोहासुर समो, सकल कर्म को राव । महामल्ल नहिं बोध सो, हरै मोह-परभाव ॥८१ भर्म न कोई कर्म से, कारण संशय जानि । भ्रमहारी सम्यक्त्व से, और न कोई मानि ।।८२ विष नहिं विषयानंद से, देहि अनंता मर्ण । सुधा न ब्रह्मानंद सो, अनुभवरूप अवर्ण ॥८३ कर न क्रोधी सारिखे, नहीं क्षमी से शांत । नीच न मानी सारिखे, निगरवसे न महांत ॥८४ मायावी सो मलिन नहि, विमल न सरल समान । चिंतातुर लोभीनसे, दीन न दुखी अयान ||८५ दुष्ट न दोषी सारिखे, रागी से नहिं अंध । अहंकार ममकार सो, और न कोई बंध ॥८६ मोही से नहिं लोक में, गहलरूप मतिहीन । कामातुर से आतुर न, अविवेकी अधलीन ।।८७ ऋण नहिं आस्रव-बंध से, राखे भव में रोकि । मुनिवर से मतिवंत नहि, छूटे ब्रह्म विलोकि ।।८८ संवर निर्जर सारिखे, रिण-मोचन नहिं कोई। दुर्जर कर्म हरें महा, मुक्तिदायक सोइ ।।८९ विपति न वांछा सारिखी, वांछा-रहित मुनीश । मृगतृष्णा मिथ्या जिसो, और न कहें रिषीश ॥९० समतासी संसार में, साता कोइ न जानि । सातासी न सुहावणी, इह निश्चय उर आनि ।।९१ ममतासी मानों भया, और असाता नाहिं । नाहिं असाता सारिखो, है अनिष्ट जगमाहिं ।।९२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org