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श्रावकाचार-संग्रह उदासीनता सारिखी, समता-करण न कोय । जग अनुराग समानता, समता मूल न जोय ॥९३ नाहिं भोग-अभिलाष सी, भूख अपूरण वीर । नाहिं भोग वैराग सी. परणता है वीर ॥९४ नाहीं विषयाशक्ति, सी त्रिसा त्रिलोकी मांहि । विरकततासी विश्व में, और तुषा-हर नांहि ॥९५ पराधीनता सारिखी, नहीं दीनता कोइ । नहिं कोई स्वाधीनता, तुल्य उच्चता होइ ॥९६ नहीं समरसी भाव सी, समता त्रिभुवन माहि । पक्षपात बकवाद सी, और न विसमता नांहि ॥९७ जगतकोमना कल्पना,-तुल्य कालिमा नांहि । नहीं चेतना सारिखी ज्ञायक त्रिभुवन मांहि ॥९८ ज्ञान चेतना सारिखी, नहीं चेतना शुद्ध । कर्म कर्मफल चेतना, ता सम नाहिं अशुद्ध ॥९९ नर निरलोभी सारिखे, नाहिं पवित्र बखान । सन्तोषी से नहिं सुखी, इह निश्चय परवान ।।१०० निरमोही अर निरममत, ता सम सन्त न कोय । निरदोषी निरवर से, साधु और न कोय ॥१ दोष समान न मोषहर राग समान न पासि । मोह समान न बोध हर, ए तीनू दुखरासि ॥२ व्रती न कोई निशल्य सो, माया तुल्य न शल्य । हीन न जाचिक सारिखो त्यागी से न अतुल्य ।।३ कामी से न कलकंघी, काम समान न दोष । परदारा परद्रव्य सा, और न अघ को कोष ।।४ शल्य समान न है सली, चभी हिये के मांहि । नहिं निरदयी स्वभाव सो, मूढ़ा और कहाहिं ॥५ शोच न संग समान है, संग न अंग समान । अंग नहीं द्वय अंग से, तिनहिं तजै निरवान ॥६ कारमाण अर तेज सा. ए द्वय देह अनादि । लगे जीव के जगत में, रोग महा रागादि ॥७ गेह समान न दूसरो, जानू' कारागेह । देह समान न गेह है, त्यागो देह-सनेह ॥८ ए काया नहिं जीव को, सो है ज्ञान शरीर । मृत्यु न ज्ञान गरीर की, नहीं रोग को पीर ॥९ नाहीं इष्ट-वियोग सो, शोक-मूल है कोइ। काया माया सारिखौ, इष्ट न जग के जोइ ॥१०
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