________________
दौलतराम-कृत क्रियाकोष नहिं संकल्प विकल्प सो, जाल दूसरो जानि । नहिं निरविकलप ध्यान सो, छेदक जाल बखानि ॥११ नहीं एकता सारिखी, परम समाधि स्वरूप । नहीं विषमतासी अवर, सठता रूप विरूप ॥१२ चिन्ता सी असमाधि नहिं, नहिं तृष्णा सी व्याधि । नहिं ममता सी मोहनी, मायासी न उपाधि ।।१३ ज्ञानानन्दादिक महा, निजस्वभाव निरदाव । तिनसों तन्मय भाव जो, सो एकत्व कहाव ।।१४ आशासी न पिशाचिनी, आसासी न असार । नहीं जाचना सारिखी, लघुता जगत मंझार ॥१५ दान-कलासी दूसरी, दुख-हरणी नहिं कोइ । ज्ञान कलासो जगत में, सुखकारी नहिं कोइ ॥ १६ नाहिं क्षुधासी वेदना, व्यापै सबकों सोइ। अन्न-पान दातार से, दाता और न होइ ॥१७ पर दुख हरणी सारिखी, गुरुता और न जानि । पर पीड़ा करणी समा, खलता कोइ न भानि ।।१८ शुद्ध पारणामिक समा, और नाहिं परिणाम। सकल कामना त्याग सो, और न उत्तम काम ॥१९ धर्म-सनेही सारिखा, नाहिं सनेही होइ। विषय-सनेही सारिखा, और कुमित्र न कोइ ॥२० सर्व वासना त्याग सी, और न थिरता वीर । कष्ट न नरक निगोद से, नहीं मरणसी पीर ॥२१ राज-काज अभ्यास सो, और न दुरगति-दाय । जोगाभ्यास अभ्यास सो, और न सिद्धि उपाय ॥२२ नहिं विराधना सारखी, बाधाकरण कहाहि । आराधन सी दूसरो, भव-बाधा-हर नाहिं । २३ निजसरूप आराधना, अचल समाधि स्वरूप । ता सम शिव साधन नहीं, यह भावें जिनभूप ॥२४ निज सत्ता सी निश्चलता, और न मानों मित्त। आधि-व्याधि तें रहित जो, ध्यावौ ताहि निचित ॥२५ निज सत्ता को भूलि जे, राचे माया माहि । धरि धरि काया में भ्रमें यामें संशय नाहिं ॥२६ मुनिव्रत तजि भवभोग कों, चाहे जे मति मंद । तिनसे मूढ़ न लोक में, इह भाषे जिनचन्द ॥२७ वृद्ध भये हू गेह कों, जो न तजे मतिहीन । तिनसे गृद्ध न जगत में, कापुरुषा न मलीन ॥२८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org