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________________ दौलतराम-कृत क्रियाकोष तिनकों जो सु अहार दे, ता सम और न कोइ । दानधर्मतें रहित जे, किरपण कहिये सोइ ॥१९ कियो आपने अर्थ जो, सोही भोजन भ्रात । मुनिकों अरति विषाद तजि, दे भवपार लहात ॥२० शिथिल कियो जिह लोभकों, परम पंथके हेत । तेई पात्रनिकों सदा, विधि करि दान जु देत ॥२१ सम्यग्दृष्टी दान करि, पावै पूर निरवान। अथवा भव धरनों परै, तो पावै सुरथान ||२२ विन सम्यक्त जु दान दे, त्रिविधि पात्रको जोहि । पावै इन्द्री भोग सुख, भोगभूमि में सोहि ॥२३ उत्तस पात्र सु दानतें, भोगभूमि उतकृष्ट । पावै दशधा कल्पतरु, जहां न एक अनिष्ट ॥२४ मध्य पात्रके दान करि, मध्य भोगभू माहि । जधनि पात्रके दानकरि, जघनि भोगभू जाहिं ।।२५ पात्रदानको फल इहै, भाषे गणधरदेव । धन्य धन्य जे जगतमें, करें पात्रको सेव ॥२६ चाल छन्द देने औषध सु अहारा, देने श्रुत पाप प्रहारा। रहने को देनी ठौरा, करने अति ही जु निहौरा ॥२७ हरने उपसर्ग तिन्होंकें, धरने गुण चित्त जिन्होंके । सुख साता देनी भाई, सेवा करनी मन लाई ॥२८ ए नवविधि पात्र जु भाखे, आगम अध्यातम साखे । बहुरी त्रय भेद कुपात्रा, धारें बाहिज व्रतमात्रा ॥२९ जे शुभ किरिया करि युक्ता, जिनके नहिं रीति अयुक्ता। सम्यग्दर्शन बिन साधु, तप संजम शील अराधू ॥३० पावें नहिं भवजल पारा, जावें सुरलोक विचारा । पहुंचे नव ग्रीव लगै भी, जिनतें अघकर्म भगै भी ॥३१ पण भावलिंग बिनु भाई, मिथ्यादृष्टी हि कहाई। द्रयलिंग धारक जति जेई, उतकृष्ट कुपात्रा तेई ॥३२ जे सम्यक बिन अणुव्रत्ती, द्रव्य-श्रावकव्रत प्रवृत्ती । ते मध्य कुपात्र बखाने, गुरुने नहिं श्रावक मानें ॥३३ आपा पर परचें नाहीं, गनिये बहिरातम माहीं। षोडश सुरगलों जावें, आतम अनुभव नहिं पावें ॥३४ दोहा जघनि कुपात्रा अवती, बाहिर धर्मप्रतीति । दीखें समदृष्टी समा, नहिं सम्यककी रीति ॥३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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