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________________ ३३० श्रावकाचार-संग्रह शभगति पावै तो कहा, लहै न केवल भाव । ये संसारी जानिये, भार्षे श्रोजिनराव ॥३६ इनको जानि सुपात्र जा, धारें भक्ति विधान। सो कुभोगभूमी लहे, अल्पभोग परवान ॥३७ पर उपगार दया निमित्त, सदा सकलकों देय । पात्रनिकी सेवा करै, सो शिवपुर सुख लेय ॥३८ नहिं श्रावक नहिं व्रत जती, नहिं श्रावक वत जानि । नहिं प्रतीति जिनधर्मकी, ते अपात्र परवानि ॥३९ बिनै न करनों तिनतनों, दया सकल परि जोग । करनी भक्ति सुपात्रकी, भक्ति अपात्र अजोगि ॥४० करनी करुणा सकल परि, हरनी सबकी पीर । धरनी सेवा सन्तकी, इह मा श्रीबीर ॥४१ पात्रापात्र द्विभेद ए, कहे सूत्र अनुसार । अब सुनि करुणादानको, मेद विविधि परकार ॥४२ सबै आतमा आपसे, चेतनगुण भरपूर । निज परकी पहिचान बिन, भ्रमें जगतमें कूर ॥४३ उदय कर्मके हैं दुखो, आधि व्याधिके रूप । परे पिंडमें मूढधी, लखें नहीं चिद्रूप ॥४४ तिन सब पर परिके दया, करे सदा उपगार। नर तिर सब ही जीवको, हरे कष्ट व्रतधार ।।४५ अपनी शक्ति प्रमाण जो, मेटे परकी पीर । तन मन धन करि सर्वको, साता दे वर वीर ॥४६ अन्न वस्त्र बल औषधी, त्रण आदिक जे देय । जाने अपने मित्र सह, करुणाभाव घरेय ॥४७ बाल वृद्ध रोगोनिको, अति ही जतन कराय । अन्ध पंगु कुष्टीनि परि, करै दया अधिकाय ॥४८ बन्दि छुडावै द्रव्य दे, जीव बचावै सवं । अभयदान दे सर्वकों, धरै न धनको गर्व ॥४९ काल दुकाले माहि जो, अन्नदान बहु देय । रंकनिकी पीहर जिको, नरभवको फल लेय ॥५० जाको जगमें कोउ नहीं, ताको भोरी सोइ । दुरबलको बल शुभमती, प्रभुको दासा होइ ।।५१ शीतकालमें शीतहर, दे वस्त्रादिक वीर । उष्णकालमें तापहर, वस्तु प्रदायक घोर ॥५२ वर्षाकालै धर्मधी, दे आश्रय सुखदाय । जल बाधाहर वस्तु दे, कोमल भाव घराय ॥५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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