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श्रावकाचार-संग्रह
सेवा जोग्य सुपात्र ए, कहे जिनागम माहिं । भक्ति सहित जे दान दें, ते भवभ्रांति नसाहिं ॥ १ त्रिविध पात्रके भेद नव, कहे सूत्र परवान । मुनिको नवधा भक्ति करि, देहि दान बुधिमान ॥२ विधिपूर्वक शुभ वस्तुकों, स्वपर अनुग्रह हेत । पातरकों दान जु करें, सो शिवपुरको लेत ॥ ३ नवधा भक्ति जु कौनसी, सो सुनि सूत्र - प्रवानि मिथ्या मारग छाड़ि करि, निज श्रद्धा उर आनि ॥४ आवो आवो शब्द कहि, तिष्ठ तिष्ठ भासेहि । सो संग्रह जानों बुधा अध-संग्रह टारेहि ॥५ ऊँची आसन देय शुभ, पात्रनिकों परवीन । पग धो अरचे बहुरि, होय बहुत आधीन ||६ करे प्रणाम बिनय करी, त्रिकरण शुद्धि धरेहि । खान-पानकी शुद्धता, ये नव भक्ति करेहि ॥७ सुनों सात गुण पंडिता, दातारनिके जेह । धारै धरमी घोर नर, उधर भव- जल तेह ॥८ इह भव फल चाहे नहीं, क्रियावान अति होय । कपट रहित ईर्षा - रहित, धरै विषाद न सोय ||९ हुइ उदारता गुण सहित, अहंकार नहिं जानि । ए दाताके सप्त गुण, कहे सूत्र परवानि ॥ १० श्रद्धा धरि निज शक्तिजुत लोभ रहित ह्वै धीर । दया क्षमा दृढ़ चित्त करि, देय अन्न अर नीर ॥११ राग द्वेष मद भोग भय, निद्रा मन्मथपीर । उपजावै जु असंजमा, सो देवौ नहि वोर ॥१२ यह आज्ञा जिनराजकी, तप स्वाध्याय सु ध्यान । वृद्धि-करण देवी सदा, जाकरि लहिये ज्ञान ॥१३ मोक्ष कारणा जे गुणा, पात्र गुणनिके धीर । तातें पात्र पुनीत ए, भाषें श्रीजिनवीर ॥१४ संविभाग अतिथीनको, व्रत्त बारमों सोइ । दया तनों कारण इहै, हिंसा नाशक होइ ॥ १५ हिंसा के कारण महा, लोभ अजसकी खानि । दान करे नासै भया, इह निश्चय उर आनि ॥ १६ भोग-रहित निज जोग धरि, परमेश्वर के लोग । जिनके दर्शन मात्र ही, मिटे सकल दुख सोग ॥१७ मधुकर वृति धारें मुनी, पर पीड़ा न करेय । पुण्यजोग आवे घरे, जिन आज्ञा जु धरेय ||१८
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