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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
दोहा
छं पड़िमा जानों जवनि, मध्य जु नवमी ताइ । दस एकादशमी उभय, उतकृष्टी कहवाइ ॥८४ पतिव्रता जो श्राविका, मध्यम माहिं जघन्य । ब्रह्मचारिणी मध्य है, आर्या उत्तम धन्य ॥८५ पंचम गुण ठाणें व्रती श्रावक मध्य जु पात्र | छठें सातवें ठाण मुनि, महापात्र गुणगान ॥ ८६ कहे मध्यके भेद त्रय, अर उत्तकिष्टे तीन । सुनों जघन्य जु पात्रके, तीन भेद गुणलीन ॥८७ चौथे गुणठाणे महा, क्षायिक सम्यकवन्त । सो उतकृष्टे जघनमें, भाषें श्रीभगवंत ॥८८ क्रोध मान छल लोभ खल, प्रथम चौकरी जानि । मिथ्या अर मिश्रहि तथा, सम्यक् प्रकृति पर वानि ॥८९ सात प्रकृति ए खय गई, रह्यो अलप संसार ।
जीवनमुक्त दशा धरं, सो क्षायिकसम धार ॥९० सातो जाके उपसमे, रमें आपमें धीर । सो उपसम- सम्यक धनी, जघन माहि मघि वीर ॥९१
सात माहि षट उपस में, एक तृतीय मिथ्यात ।
उदै होय है जा समें, सो वेदक विख्यात ॥९२ वेदक सम्यकवन्त जो, जघनि जघनिमें जानि । कहे तीन विधि जघन ए, जिन आज्ञा उर आनि ॥ ९३ जन पात्रकूं अन्न जल, औषध पुस्तक आदि । वस्त्राभूषण आदि शुभ, थान मान दानादि ॥९४ देवो गुरु भाषें भया, करनों बहु उपगार । हरनी पीरा कष्ट सहु, धरनों नेह अपार ॥९५ सब ही सम्यकधारका, सदा शांत रसलीन । निकट भव्य जिनधर्मके, घोरी परम प्रवीन ॥९६ नव भेदा सम्यक्तके, तामें उत्तम एक ! सात भेद गनि मध्यके, जर्घान एक सुविवेक ॥९७ वेदक एक जघन्य है, उत्तम क्षायिक एक । और सबै गनि मध्य ए, इह धारी जु विवेक ॥९८
क्षयोपसम वरते त्रिविध, वेदक चारि प्रकार । क्षायिक उपसम जुगल जुत, नवधा समकित घर ॥९९ वेदक कछुयक चंचला, तौ पनि मर्म-उछेद | लखे आपको शुद्धता जानें निज पर मेद ॥ ११००
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