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श्रावकाचार-संग्रह
जिनशासनको अभ्यासा, भव-भोगनिसं जु उदासा। श्रावक के घर अविकारा, ले आप उदंड अहारा ॥६७ गुणवान साध सारीसा, लुचितकेसा बिन रीसा। ए ऐलि त्रिवर्णा होई, शूद्रा नहिं ऐलि जु कोई ॥६८ इनतें छुल्लक कछु छोटे, परि और सकलतें मोटे । इक खंडित कपरा राखे, तिनको छुल्लक जिन भाखें ॥६९ कमडलु पीछी कोपीना, इन बिन परिग्रह तजि दीना। जिनश्रुत-अभ्यास निरंतर, जान्यूं है निज पर अंतर ॥७० जे हैं जु उदंड विहारा, ले भाजनमाहिं अहारा। कातरिका केस करावै, ते छुल्लक नाम कहावै ॥७१ चारों हे वर्ण जु छुल्लक, राखें नहिं जगसूं तल्लुक । आनन्दो आतमरामा, सम्यग्दृष्टी अभिरामा ॥७२ ए द्वै है भेद बड़ भाई, ग्यारम पड़िमा जु कहाई । वन-माहिं रहैं वर वीरा, निरभय निरव्याकुल धीरा ॥७३ तिनकी करि सेव जु भाया, जो जीवनिकों सुखदाया। तिनके रहनेकों थाना, वनमें करने मतिवाना ||७४ भोजन भेषज जिनग्रन्था, इनकों दे सो निजपंथा। पावै अर दे उपकरणा, सो हरै जनम जर मरणा ॥७५ उपसर्ग उपद्रव टारे, ते निरभय थान निहारै । दसमी अर ग्यारस दोऊ, मध्यम उतकृष्टे होऊ ॥७६ अथवा आर्या व्रतधारी, अणुव्रतमें श्रेष्ठ अपारी । आर्या घर-बार जु त्यागै, श्रीजिनवरके मत लागै ॥७७ राखै इक बस्त्र हि मात्रा, तप करि है क्षीण जु गात्रा । कमडलु पीछी अर पोथी, ले भूति तजी सह थोथी ॥७८ थावर जंगम तनवाना, जानें सब आप समाना। जे मुनि कर-पात्र अहारा, सिर लोंच करें तप धारा ॥७९ तिनकी सो रीति जु धारै, जगसों ममता नहि कारै । द्विज क्षत्री बणिक कुला ही, द्वै आर्या अति विमला ही ॥८० अणुव्रत परि महाव्रत तुल्या, नारिनमें एहि अतुल्या । माता त्रिभुबनकी भाई, परमेसुरसों लवलाई ॥८१ आर्याकों वस्त्र जु भोजन, देनें भक्ती करि भो जन । पुस्तक औषधि उपकरणा, देने सहु पाप जु हरणा ॥८२ उपसर्ग हरै बुधिवाना, रहनेकों उत्तम थाना । देवे पुन अविनासी, लेवं अति आनंदरासी ।।८३
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