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________________ श्रावकाचार-संग्रह इम जाणी भविजन्न, दिवस मैथुन ते परिहरो, सालेहड़ी. रातें आहार-परित्याग, छट्ठी प्रतिमा अनुसरो, सालेहड़ी० ॥७२ दोहा दिवा ब्रह्मवत जे धरे ते नर देव समान । अयोग्य काज किम कीजिए, दिवस खास वदिमान ॥१ लाजे कापड पेहरीए, लाजे दीजे दान । लाजे काज सहू सरे, लाज करो गुणधार ॥२ मन वच कायाइ वश करी, दिने शील पालो सार। रात्रं आहार जे परिहरें, धन धन ते अवतार ॥३ लंपट जे नर कामिनी, अयोग्य करे जे काज । निन्दा अपजस ते लहें, सहे ते दुक्ख समाज ॥४ इम जाणी संतोष धरि, म करो कर्म अयोग्य । शुभ सदाचार संचरो, करो मन मन संतोष ॥५ दर्शन आदि छै स्थान, अनुदिन पाले जे सार । जघन्य श्रावकते जाणिये, धरे जे शुभ आचार ॥६ अबढाल बंबिकानी प्रतिमा छै विशाल, संक्षेपें भेद में भण्! ए । हवे कह शील भेद, प्रतिमा सातमी ते तणुं ए॥१ सर्व नारी परिहार, देव मनुष्य पशु तणी ए। अचेतन जे नार, चार भेद सेवो झणी ए॥२ मन वयण निज अंग, कृत कारित अनुमोदना ए। नव भेदे त्यजो संग, नारी नरकते नोदना ए॥३ दृढ़ घरो ब्रह्मचर्य, निज पर स्त्री दूरें त्यजो ए। व्रत सहु माहें ब्रह्मचर्य, शीलरत्न सदा भजो ए॥४ स्त्री कथा स्त्री गोष्ठ, स्त्री-संगति दूरे करो ए। स्त्री तणी सेवा निकृष्ट, स्त्री-संगति तम्हों परिहरो ए॥५ वृद्ध यौवन स्त्री बाल, माता बहिन पुत्री सम ए। चिंतवो ते सकोमाल, मन मर्कट गुण दमीइ ए ॥६ सणो नारी निक्षेद, स्थूल दोष ते सांभलो ए । जिम उपजे निर्वेद, सहज भाव ते कसमलु ए ॥७ मर्खपणों बहु होइ, माया मिथ्यात जु बोलीइ ए। सहज अशुचि तजोइ, पाप-साहस घणुं वली ए॥ सहजें निर्दय परिणाम, लोभ तृष्णा करे घणी ए।। कलंक तणुं ते ठाम, रामा रंग करो घरो धणी ए॥९ कचपे चुं आवास, मुख अस्थि चरम पंचरो ए। दुर्गन्ध श्लेष्म कुसास, काम आस्वादे कूकरो ए॥१० स्तन ए मांस को पिंड, रस रुधिर पश्रु पर वहे ए। उदर वृष्टि घडे प्रचंड, कामी काक रागि रहे ए॥११ कामिनी कलत्र कुस्थान, मूत्र रक्त सदा ए। नरक कुविलन समान, कामी कीट सेवा करे ए ॥१२ बाह्य देखि चाक चुंब, जिम पतंग दीवे पडे ए। मरे सेवे रागी सुंव, मदन विरी जीविनें नडे ए ।।१३ अभ्यन्तर भाग अंग, रोग वसे बाहिर जो थाइ ए। तो उपजे बहु सुंग, काग माखी भक्षी जाइ ए ॥१४ एह वो अंग अपवित्र, रोगी नर रचें सदा ए। सप्त धातु भरयो विचित्र, डाहो नहीं सेवे सदा ए ॥१५ पुरुष-अंग संयोग, जीव अलब्ध बहु मरें ए। योनि स्थान-उत्पन्न, लिंग संघट्टि हिंसा घणी ए ॥१६ स्त्रीसेवंता एक वार, नव लक्ष जीव मरि ए। जिम तिल मरी वंसनाल, तातो जिम दंड संचरि ए॥१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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