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पदम-कृत श्रावकाचार
जे जे सचित्त वस्तु, ते ते भक्षण न वि कीजिये, साहेलड़ी. अप्रासुक मिश्र प्रासुक, द्रव्य सचित्त सहु तजीजिये, साहेलड़ी० ॥५४ सूकू पाकू अग्नि, तस कसाल्या द्रव्य माहे भले, साहेलड़ी. अथवा कीजे चूर्ण, पूर्ण प्रासुकं जन्त्र-दले, साहेलड़ी० ॥५५ शद्ध प्रासक जे द्रव्य, स्परस रस गंध वरण, साहेलडी. जेह मार्ने निज मन्न, ते प्रासुक वस्तु जोग्य करण, साहेलड़ी० ॥५६ पथिवी अप तेज वाय. असंख्य जीव न वि बंधीये, साहेलड़ी. वनस्पति अनंतकाय, तेह जीव न विराधीये, साहेलड़ी० ॥५७ जो मिले प्रासुक द्रव्य, तो आपणे न विराधोये, साहेलड़ी. कोमल करि परिणाम, जीव दया धर्म राखीये, साहेलड़ी० ॥५८ मन वच कायाइ जाणि, पंचम प्रतिमा पालिये, साहेलड़ी. जीव दया तेणें काज, जीव हिंसा हुँ टालिये, सालेहड़ी० ॥५९ दिवा मैथुन त्याग, रात्रे आहार चार त्यजो, साहेलड़ी० छट्ठी प्रतिमा नेम, रात्रि भुक्ति विरति भजो, साहेलड़ी० ॥६० अशन पान खादि स्वादिम, अन्न आदि अशन कही, साहेलड़ी. जल आदि रस पान, दुग्ध घृत तेल सही, साहेलड़ी० ॥६१ खाजा मोदक पकवान, फल आदि खादु वस्त, साहेलड़ी. लवंग एलाची तंलोल, स्वादकारी द्रव्य प्रशस्त, साहेलड़ी० ॥६२ ए चतुर्विध आहार, रात्रि समय न वि खाइए, साहेलड़ी. थल सूक्ष्म जीव घात, अन्धकार न वि देखीए, साहेलड़ी० ॥६३. दिवस उदय सूर्यमान, घड़ी य दोय चार होइ जब, सालेहड़ी. तब कीजे स भोजन्न, आहार चार भोकल्या तब, सालेहड़ी० ॥६४ मास एक पर्यन्त, निशा आहार जे नियम करे, सालेहड़ी० लहे पुण्य विशाल, उपवास पन्नर फल लहे, सालेहड़ी० ॥६५ उपवासें होइ कष्ट, निशा आहारें सो हिल्यो त्यजो, सालेहड़ी इम जाणी भव्य लोक, उपवास पुण्य ते तेतलो, सालेहड़ी० ॥६६ मन वच काया ठाम, परिणामें पुण्य ऊपजे, सालेहड़ी. निशाहार चार त्याग, सुख सन्तोष संपजे, सालेहड़ी० ॥६७ जाव जीव धरे जे नेम, रजनी चहुं आहार तणो, सालेहड़ी. ते फल बहु उपवास, काल गमे ऊर्ध आपणो, सालेहड़ी० ॥६८ निशाहार-नियमवन्त, जस पुण्य महिमा घणों, सालंहड़ी. ऋद्धि वृद्धि लहे सौभाग्य, सुख पामे देव पदतणों, सालेहड़ी ॥६९ दिवा करे जे मैथुन, ते नर पशु समान, सालेहड़ी० दिन अयोग्य यह कर्म, सूर्य साखें कीजे किम, सालेहड़ी० ॥७० दिवा ब्रह्मचर्यवन्त, ते नर देव समो कहीइ, सालेहड़ी. दिवा कीजे धर्मकाज, लाज काज कीजे नहीं, सालेहड़ी• ॥७१
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