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श्रावकाचार-संग्रह
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है मत्सरता पंचमों, दूषण दुखकी खानि । करें अनादर दानको, ता सम मूढ़ न आनि ॥७२ देखि न सके विभूति पर, पर-गुण देखि सकै न । सहि न सकै पर उच्चता, सो भव-वास तजै न ॥ ७३ नहि मात्सर्य समान कोउ, दूषण जगमें आन । जाहि निषेधें सूत्रमें तीर्थंकर भगवान ॥७४ अतीचार ए दानके कहे जु श्रुत अनुसार | इनके त्याग किये शुभा, होवै व्रत अविकार ॥७५ नमो नमो च दानको जे द्वादश व्रत मूल । भोजन भेषज भय हरण, ज्ञानदान हर भूल || ७६ भोजन दानें ऋद्धि है, औषध रोग निवार । अभयदानते निर्भया, श्रुति दानें श्रुत-पार ॥७७ कहे व्रत द्वादश सबै, दया आदि सुखदाय । दान पर्यन्त शुभंकरा, जिन करि सब दुख जाय ॥७८ एक एक व्रत्तके कहे, पंच पंच अतिचार | पालें निरतीचार व्रत्त, ते पावें भव पार ॥७९ सम्यक बिन नहिं व्रत है, व्रत विन नहि वैराग । बिन वैराग न ज्ञान, राग तजे बड़भाग || ८०
चाल छन्द
ra सुनि सब व्रतको कोटा, देशावकाशिव्रत मोटा । ताकी सुनि रीति भाई, जैसी जिनराज बताई ॥८१ पहले जु करी परमाणा, दिसि विदिशाको विधि जाणा । इन्द्री विषयनिका नेमा, कीयौ घरि व्रतसों प्रेमा ॥८२ धन धान्य अन्न वस्त्रादी, भोजन पानाभरणादी । मरजादा सबकी धारी, जीवितलों धर्म सम्हारी ॥ ८३ जामें मरजादा बरसी, तामें छै मासी दरसी । करनी चउमासो तामें, बहुरि द्वौ मासी जामें ॥८४
तामें मासी नेमा, मासीमें पाखी प्रेमा । पाखीमें आधी पाखी, ताहूमें दिन-दिन भाखी ॥८५ दिन माहीं पहरां धारे, पहरनिमें घरी विचार । पल-पल के धारै नेमा, जाके जिनमतसों प्र ेमा ॥८६ भोगनिसो' घटतो जाई, व्रतहै चढ़तो अधिकांई । सीमा में सीमा कारै, जिन-मारग जतनें धारै ॥८७ बाड़ फले क्षेत्रनिके, जैसें कोट जु नगरीके । तैसे यह द्वादश व्रतके, देशावकाशि व्रत सबके ||८४
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