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श्रावकाचार-संग्रह
सोरठा जो नहिं समझी जाय, जिनवाणी अति सूक्षमा। तो ऐसे उर लाय, संदेह न मन आने सुधी ॥७२ बुद्धि हमारी मन्द, कछु समझ कछु नाहिं । जो भाष्यो जिनचन्द, सो सब सत्य स्वरूप है ॥७४ उदय होयगो ज्ञान, जब आवरणु नसाइगौ। प्रगटेगो निज ध्यान, तब सब जानी जायगी ॥७४ जिनवानी सम और, अमृत नाहिं संसार में। तीन भुवन सिरमौर, हरै जन्म जर-मरण जो ॥७५ जिनर्मिनि सों नेह, लग्यो नेह जिनधर्मसू । बरसै आनन्द मेह, भक्त भयो जिनराज को ॥७६ सो सम्यक धरि धीर, लहै निजातम भावना। पावै भवजल तोर, दरसन ज्ञान चरित्त तॆ ॥७७ ऋद्धिनि में बड़ ऋद्धि, रतननि में रतन जु महा। या सम और न सिद्धि, इह निश्चय धारौ भया ॥७८ योगिनि में निज योग, सम्यक दरसन जानि तू । हने सदा सब शोक, है आनन्दमयी महा ॥७९
जोगीरासा वन्दनीक है सम्यकदृष्टी, यद्यपि व्रत्त न कोई। निन्दनीक है मिथ्यादृष्टी, जो तपसी हू होई ॥ मुक्ति न मिथ्यादृष्टी पावै, तपसी पाव स्वर्गा । ज्ञानी व्रत्त बिना सुरपुर ले, तपरि ले अपवर्गा ॥८० दुरगति बन्ध करै नहिं ज्ञानी, सम्यकभावनि माहीं। मिथ्याभावनि में दुरगति को, बन्ध होय बुधि नाहीं । समकित बिन नहिं श्रावकवत्ती, अर मुनिव्रत हू नाहीं। मोक्ष हु सम्यक बाहिर नाही, सम्यक आपहि माहीं ।।८१ अंग निशंकित आदि जु अष्टा, धारै सम्यक सोई। शंका आदि दोष मल रहिता, निरमल दरशन होई ॥ जिनमारग भाष जु अहिंसा, हिंसा परमन भाष । हिंसा मारगकी तजि सरधा, दयाधर्म दृढ़ राखै ।।८२ संदेह न जाके जिय माहीं, स्यादवादको पंथा। पकर त्यागि एक नयवादी, सुनै जिनागम प्रथा ॥ पहली अंग निसंसै सोई, दूजो कांक्षा रहिता! जामें जगकी वांछा नाही, आतम अनुभव सहिता ॥८३
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