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दौलतराम-कृत क्रियाकोष शुभ करणी करि फल नहिं चाहै, इह भव परभवके जो। कर कामना-रहित जु धर्मा, ज्ञानामृत फल ले जो॥ इह भाष्यो निःकांक्षित अंगा, अब सुनि तीजे मेदा । निरविचिकित्सा अंग है भाई, जा करि भव-भ्रम छेदा ।।८४ जे दश लक्षण धर्म धरैया, साधु शांतरस लीना। तिनको लखि रोगादिक युक्ता, सेव करै परवीना ॥ सूग न आने मनमैं क्यूं ही, हरै मुनिनिकी पीरा। सो सम्यकदृष्टी जिनधर्मा, तिरै तुरत भवनीरा ॥८५ चौथो अंग अमूढ़ स्वभावा, नहीं मूढता जाकै। जीवघातमैं धर्म न जाने, संशयमोह न ताके । अति अवगाढ़ गाढ़ परतीती, कुगुरु कुदेव न पूजे । जिन शासनको शरणो ले करि, जाय न मारग दूजे ॥८६ जानें जीवदयामै धर्मा, दया जैन ही माहीं। आन धर्ममें करुणा नाही, परतछ जीव हताई ॥ जो शठ लज्जा लोभ तथा, भय करिके हिंसा माहीं। माने धर्म सो हि मिथ्याती, जामैं समकित नाहीं ॥८७ पंचम अंग नाम उपगृहन, ताको सुनहु विवेका। पर जीवनिकें आंखिनि देखै, ढांक दोष अनेका ।। आप जु दोष करै नहि, ज्ञानी सुकृत रूप सदा ही। अपने सुकृत नाहिं प्रकाशै, धरै न एक मदा ही ॥८८
दोहा ढांकै अपने शुभ गुणा, ढाके परके दोष । गावै गुण परजीवके, रहै सदा निरदोष ।।८९ जो कदाचि दूषण लगै, मन वच काय करेय । तो गुरु पै परकाशिके, ताको दंड जु लेय ॥९० जप तप व्रत दानादि कर, दूषण सर्व हरेय। कर जु निंदा आपकी, परनिंदा न करेय ॥९१ जे परकासै पारके, औगुन तेहि अयान । जे परकासै आपके, औगुण ते हि सयान ॥९२ जे गावै गुन आपने, ते मिथ्याती आनि । जे गावै गुन गुरुनिके, ते समदृष्टी जानि ॥९३ छद्रो अंग कहों अब, थिरकरणा गुणवान । धर्मथकी विचलेनिकू प्रतिबोधे मतिवान ॥९४ था धर्म मंझार जो, करै धर्मको पक्ष। आप डिगै नहिं धर्मते, भावे भाव अलक्ष ॥९५
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