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श्रावकाचार-संग्रह
थिरता गुण सम्यक्तको, प्रगट बात है एक । चित्त अधिरता रूप जो, तो मिथ्यात गिनेह ॥९६ सुनों सामू अंग अब, जिन मारगसों नेह । जिनधर्मीकू देखि करि, बरसे आनंद मेह ॥९७ तुरत जात बछरानि परि, नेह घरें न्यूं गाय । त्यं यह साधर्मी उपरि, नेह करें अधिकाय ॥९८ जे ज्ञानी धरमातमा, मुनि श्रावक व्रतवंत । आर्या और सुश्राविका, चउविधि संघ महंत ॥९९ तथा अव्रती समकिती, जिनधर्मी जग माहि । तिनसों राखे प्रीति जो, यामै संशय नाहि ||१८०० तन मन धन जिनधर्म परि, जो नर वारे डारि । सो वात्सल्य जु अंग है, भाख्यौ सूत्र विचारि ॥१ अष्टम अंग प्रभावना, कह्यो सुनों धरि कान | जा विधि सिद्धान्तनि विषे, भाख्यौ श्रीभगवान ॥२ भाँति-भाँति करि भासई, जिनमारगकों जो हि । करै प्रतिष्ठा जैनकी, अंग आठमो होहि ॥३ जिनमंदिर जिनतीरथा, जिनप्रतिमा जिनधर्म । जिनधर्मी जिनसूत्रकी, करें सेव बिन भर्म ॥४ जो अति श्रद्धा करि करें, जिनशासनकी सेव । बोले प्रिय वाणी महा, ताहि प्रशंसे देव ॥५ जो दशलक्षण धर्मकी, महिमा करे सुजान । इन्द्रि के सुखकों गिने, नरक निगोद निसान ॥६ कथनी करें न पारकी, पुनि-पुनि ध्यावै तत्त्व | भाव आतमभाव जो, त्यागे सर्व ममत्व ॥७ कहे अंग ये प्रथम ही, मूलगुणनिके माहि । अब हू पड़िमा मैं कहै, इन सम और जु नाहि ॥८ बार-बार थुति जोग ये, सम्यकदरसन अंग । इनकों धारे सो सुधी, करै कर्मको भंग ॥९ अष्ट अंगको धारिवो, अष्ट मदनिको त्याग । षट अनायतन त्यागिवी, अतीचार नहि लाग ॥१० ते भाषे गुरु पंचविधि, बहुरि मूढ़ता तीन । तजिवी सातों व्यसनको, भय सातौं नहिं कीन ॥११ ए सब पहले हू कहै, अब हू भाषे वीर । बार-बार सम्यक्त्व की, महिमा गार्ने धीर ॥१२ अंग निशंकित आदि बहु, अठ गुण संवगादि । अष्ट मदनिको त्याग पुनि, अर वसु मूलगुणादि ॥१३
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