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दौलतराम-कृत क्रियाकोष सात व्यसनको त्यागिवी, अर तजिवी भय सात । तीन मूढ़ता त्यागिवी, तीन शल्य पुनि भ्रात ।।१४ षट अनायतन त्यागिवी, अर पांचों अतिचार । ए वेसठ त्यागे जु कोउ, सो समदृष्टी सार ॥१५ चौथे गुणठाणे तनी, कही बात ए भ्रात । है अव्रत परि जगत तें, विरकित रूप रहात ॥१६ नहिं चाहै अव्रत दशा, चाहे व्रत्त-विधान । मन में मुनिव्रत को लगन, सो नर सम्यकवान ।।१७ जैसे पकरयो चोरकू, दे तलवर दुख घोर । परवश बध बन्धन सहै, नहीं चोरको जोर ॥१८ त्यूं हि अप्रत्याख्यानने, पकरयो सम्यकवन्त । परवश अव्रत में रहै, चाहै व्रत्त महन्त ॥१९ चाहै चोर जु छूटिवाँ, यथा बन्धतें वीर । चाहै गृहतै छूटिवाँ, त्यों सम्यक धर धीर ॥२० सात प्रकृतिके त्यागते, जेती धिरता जोय । तेती चोये ठाणि है, इह जिन आज्ञा होय ॥२१
अथ ग्यारा व्रत वर्णन । दोहा ग्यारा प्रकृति वियोगते, होय पंचमो ठाण। तब पडिमा धारै सुधी, एकादश परिमाण ॥२२ तिनके नाम सुनों सुधी, जा विधि कहै जिनंद । धारे श्रावक धीर जे, तिन सम नाहिं नरिंद ॥२३ दरसन प्रतिमा प्रथम है, दूजी व्रत अधिकार । तोजी सामायिक महा, चौथो पोसह धार ॥२४ सचितत्याग है पंचमी, छ8ो दिन-तिय-त्याग । तथा रात्रि-अनसन व्रती, धारै तपसों राग ॥२५ जानों पडिमा सातवीं, ब्रह्मचर्यब्रत धार । तजी नारि नागिन गिनै, तजे मोह जंजार ॥२६ निरारंभ ह अष्टमी, नवमी परिग्रह त्याग । लौकिक वचन न बोलिवो, सो दशमी बड़भाग ॥२७ एकादशमी दोय विधि, क्षुल्लक ऐलि विवेक । है उदंडाहार ढे, तिनमैं मुनिव्रत एक ॥२८ ऐलि महा उतकृष्ट हैं, ऐलि समान न कोय । मुनि आर्या अर ऐलि ए, लिंग तीन शुभ होय ॥२९ भाषो एकादश सबै, प्रतिमा नाम जु मात्र । अब इनको विस्तार सुनि, ए सब मध्य सुपात्र ॥३०
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