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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
कुगुरु कुदेव कुधर्मकों, जो ध्यावे हिय अंध । सो पावै दुरगति दुखा, करै पापकों बंध ॥५४ सम्यकदृष्टी चितवै, या संसार मंझार । सुखको लेश न पाइये, दीखै दुःख अपार ॥५५ लक्ष्मी-दाता और नहिं, जीवनिकों जग माहि । लक्ष्मी दासी धर्मकी, पापथकी विनसाहि ॥५६ जैसी उदय जु आवही, पूरब बांध्यौ कर्म । तैसो भुगतें जीव सब, यामैं होय न भर्म ॥५७ पुण्य भलाई कार है, पाप बुराई कार । सुख-दुखदाता होय यह, और न कोइ विचार ॥५८ निमितमात्र पर जीव हैं, इह निहचै निरधार । अपने कोये आप हो, फल भगते संसार ॥५९ पुण्यथकी सुर नर हुवै, पापथकी भरमाय । तिर नारक दुरगति विषै, भव-भव अति दुख पाय ॥६० पाप समान न शत्रु है, धर्म समान न मित्र । पाप महा अपवित्र है, पुण्य कछुक पवित्र ॥६१ पुण्य-पापते रहित जो, केवल आतमभाव । सो उपाय निरवाणको, जामैं नहीं विभाव ॥६२ झूठी माया जगतकी, झुठो सब संसार । सत्य जिनेसुर धर्म है, जा करि है भव-पार ॥६३ व्यंतर देवादिकनिकों, जे शठ लक्ष्मीहेत । पूर्जे ते आपद लहें, लक्ष्मी देय न प्रेत ॥६४ भक्ति किये पूजे थके, जो व्यन्तर धन देय । तो सब ही धनवन्त है, जगजन तिनकों सेय ॥६५ क्षेत्रपाल चंडी प्रमुख, पुत्र कलत्र धनादि । देन समर्थ न कोइकों, पूर्जे शठ जन बादि ॥६६ जो भवितव्यता जीवको, जा विधान करि होय । जाहि क्षेत्र जा कालमैं, निःसंदेह है सोय ।।८७ जान्यो जिनवर देवने, केवलज्ञान मंझार । होनहार संसारको, ता विधि व निरधार ॥६८ इह निश्चय जाके भयो, सो नर सम्यकवन्त । लखै भेद षट द्रव्य के, भावे भाव अनन्त ॥६९ शंका भागी चित्ततें, भयो निशंकित वीर । गुण परजाय स्वभाव निज, लखें आप मैं धीर ॥७० दृढ़ प्रतीत जिनवैन की, सम्यकदृष्टी सोय ।
जाके संशय जीव में, सो मिथ्याती होय ॥७१ Jain Education International
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