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श्रावकाचार-संग्रह तजै अष्ट ही गर्व जो, है निगव' गुणवान । पुत्र-कलत्रादिक उपरि, ममता नाहिं बखान ॥३६ तण सम माने देइकों, निजसम जाने जीव । धरै महा उपशांतता, त्यागै भाव अजीव ॥३७ सेवै विषयनिकों तक, नहीं विषयसूं राग। वरतै गृह आरम्भमैं, धारि भाव वैराग ।।३८ कबे दशा वह होयगी, धरियेगा मुनिवृत्त । अथवा श्रावक वृत्त ही, करियेगो जु प्रवृत्त ॥३९ धिग धिग अवतभावकों, या सम और न पाप । क्षणभंगुर विषया सबै, देहिं कुगति दुख ताप ॥४० इहै भावना भावतो, भोगनितें जु उदास । सो सम्यकदरसी भया पाने तत्त्वविलास ॥४१ सप्तम गुणके ग्रहणकों, रागी होय अपार । साधुनिकी सेवा करै, सो सम्यक गुण धार ॥४२ साधर्मिनसौं नेह अति, नहिं कुटुम्बसौं नेह। मन नहिं मोह-विलासमें, गिर्ने न अपनी देह ॥४३ जीव अनादि जु कालको, बसै देहमें एह। बंध्यो कर्म प्रपंचसों, भवमें भ्रमो अच्छेह ।।४४ त्याग जोग जगजाल सब, लेन जोग निजभाव । इह जाके निश्चय भयो, सो सम्यक परभाव ॥४५ भिन्न भिन्न जाने सुधी, जड-चेतनको रूप । त्यागै देह सनेह जो, भावै भाव अनूप ॥४६ क्षीर नीरकी भांति ये, मिलें जीव अर कर्म । नांहिं तथापि मिलें कदै, भिन्न भिन्न हैं धर्म ॥४७ यथा सर्पकी कंचुकी, यथा खडगको म्यान । तथा लखै बुध देहकों, पायौ आतमज्ञान ।।४८ दोष समस्त वितीत जो, वीतराग भगवान । ता बिन दूजी देव नहिं, इह धारै सरधान ॥४९ सर्व जीवकी जो दया, ताहि सरदहै धर्म । गुरु माने निरग्रन्थकों, जाके रंच न भर्म ॥५० जपे देव अरहंतकों दास भाव धरि धीर । रागी दोषी देवकी, सेव तजे वर वीर ॥५१ रागी दोषी देवकों, जो मानै मतिहीन । धर्म गिनै हिंसा विर्षे, सो मिथ्या मत लीन ॥५२ परिग्रह धारककों गुरु, जो जाने जग माहि । सो मिथ्यादृष्टी महा, यामैं संशय नांहिं ।।५३
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