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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
सोरठा निशि भोजनमें जीव, अति विरूप मूरति सही। तिनमें विकल अतीव, अलप आयु अर रोग-युत ॥२७
दोहा भाग्य-हीन आदर-रहित, नीच-कुलहिं उपजाहि। दुख अनेक लहे हैं सही, जो निशि भोजन खांहि ॥२८
चाल छन्द एक हस्तिनागपुर ठांम, तस जसोभद्र नृप नाम । रानी जसभद्रा जानों, श्रेष्ठो श्रीचन्द बखानों ॥२९ तिय लिखमी मति तसु एह. नृप-प्रोहित नाम सुनेह । द्विज रुद्रदत्त तसु तीया, रुद्रदत्ता नाम जु दीया ॥३० हरदत्त पुत्र द्विज नाम, तिन चरित सुनो दुख-धाम । बीतो भादोंको मास, आसोज प्रथम तिथि जास ॥३१ निज पितृ-श्राद्ध दिन पाय, द्विज पुरका सकल बुलाय । बाह्मण जीमणकों आये, बहु अशन थकी जुअ थाये ॥३२ द्विज पिता नृपतिके तांई, पोषै वहु विनो धराई । पोछे नृप-मन्दिर आयो, राजा वहु काम करायो ॥३३ तसु राज-काजके मांही, भोजन की सुधि न रहांही। बहु क्षुधा थकी दुख पायो, निशि अर्ध गयां धरि आयो ॥३४ निशि पहर गई जब एक, तसु वनिता धरि अविवेक । रोटी जीमन कूँ कीनी, वेंगण करणे मन दीनी ॥३५ हांडी चूल्हें जु चढ़ाई, पाड़ोसी हींगको जाई। इतने में हांडी मांही, मोंढक पड़ियो उछलाहीं ॥३६ तिम वेंगणा छौं के आय, मीढक मूवो दुख पाय । तब हांडी लई उतारी, रोटी ढकणो परि धारी ॥३७ कीड़ी रोटीमें आई, घृत सनमधिते अधिकाई । निशि बीत गई दो जाम, जीमण बैठो द्विज ताम ॥३८
वोहा निशि अँधियारी दीप बिनु, पीड़ित भूख अपार | जो निशि भोजी पुरुष हैं, तिनके नहीं विचार ॥३९ रोटी मुखमें देत ही, चींटी लगी अनेक । विप्र होंठ चटको लियो, बड़ो दोष अविवेक ।।४० बैंगण को लखि मीढको, विस्मय आण्यो जोर । तातें अघ उपज्यो अधिक, महा मिथ्यात अघोर ॥४१
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