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श्रावकाचार-संग्रह
इह जल-छालण विधि कहीं, जिन-आगम-अनुसार । कहि हों कथा अणथमी, सुनियो भवि चितवार ॥१५
इति जल-गालण-विधि।
अब बनवमी-कथन । बोहा घड़ी दोय जब दिन चढ़े, पछिलो घटिका दोय । इतने मध्य भोजन करे, निश्चय श्रावक सोय ॥१६
सोरठा
सुनिये श्रेणिक भूप, निशि-भोजन त्यागी पुरुष । सुर-सुख भुगति अनूप, अनुक्रमि शिव पार्व सही ॥१७ दिवस अस्त जब होय, ता पीछे भोजन करै । वे नर ऐसे होंय, कहूँ सुनों श्रेणिक नृपति ॥१८
नाराच छन्द उलूक काक औ विलाव, गृद्ध पक्षि जानिये, वधेरु डोडु सर्प सर सांवरौ बखानिये, हवंति गोहरो अतीव पाप रूप थाइये, निशी आहार दोष ते कुजोनिकों लहाइये ।।१९
दोहा निशि वासरको भेद बिन, खात नृपति नहिं होय । सींग पूंछते रहित ही, पश जानिये सोय ॥२०
दिन तजि निशि भोजन कर, महापापि मति मूढ । बहु मोल्यो माणिक तजे, काच गहे धरि रूढ ॥२१
छन्द चाल । निशि माहें असन कराही, सो इतने दोष लहाही ! भोजनमें कीड़ी खाय, तसु बुद्धि-नाश हो जाय ।।२२ जं उदर-मांहि जो जाय, सिंह रोग जलोदर थाय । माखी भोजनमें खैहै, तलछिण सो वमन करै है ॥२३ मकड़ो आवे भोजनमें, तो कुष्ट रोग है तन में। .. कंटक रु काठ को खंड, फंसि है सो गले प्रचण्ड ॥२४ तसु कंठ विथा विसतारे, है है नहिं ढील लगारे। भोजनमें खेहें बाल, सुर-भंग होय ततकाल ॥२५ अरु अशन करत निशि मांही, वज्जादिकमें उपजाहीं। इनि आदि अशन निशि दोष, सबही हों हैं अघकोष ॥२६
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