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________________ किशनसिंह - कृत क्रियाकोष ire वे फिरि छान्यो नहि परे, वांके जीव कहां लों धरे । प्रासुक जलके भाजन मांहिं, जो कहुं नीर अगालित आहि ॥९९ ताके जीव मरे सब सही, उनको पाप कोई न इच्छही । तातें बहुत जतन मन आनि, प्रासुक करि वरती सुख दानि ॥८०० छाप्यो जल घटिका द्वय मांहि, सम्मूर्च्छन उपजै सक नाहि । आज उसन की विधि सबठौर, व्यापि रहो अति अधकी दौर ॥१ व्यालू निमित असन करि घरे, ता पीछे खीरा ठवरे । तिनमें जल तातो करवाय, निसि सवार लो सो निरवाहि ॥२ मरयादा माफिक नहिं सोय, ताकों वरतो मति भवि लोय । कीजे उसन इसी विधि नीर, जो जिन-आज्ञा-पालन वीर ||३ भात बोरिये जिह जल मांहि, वैसो जल जो उसन कराहि । आठ पहर मरयादा तास, सम्मूच्छंन पीछे ह्रूं जास li४ जो श्रावक व्रत को प्रतिपाल, तिहको निसि जलकी इह चाल । छायो प्रासुक तातो नीर, म·यादा में वरतो नोर ॥५ छन्द चाल वीछे कपड़े जो नीर, छानें श्रावक नहीं कीर । मरयाद जिती कपड़ा की, तासों विधि जल छणवाकी ॥ ६ यातें सुनिये भवि प्राणी, जलकी विधि मनमें, आनी । बहु घरि विवेक जल गालै, मन वच तन करुणा पाले ॥७ पंचनिमें सो अति लाजे, बर जिन-आज्ञा सो त्याजै । सो पाप उपावे भारी, जाणो तसु हीणाचारी ॥८ यातें ल्यो वसन सुफेद, छानो जल किरिया वेद । औरनि उपदेश जु दीजे, बिनु छाणे कबहुँ नहि पीजे ॥९ श्रावक - वनिता घर मांही, किरिया जुत सदा रहाहीं । वह जतन थकी जल छाने, ताको जस सकल बखाने || १० लघु त्रिया प्रमाद प्रवीन, जलकी किरियामें हीन । ताप न छणावे पानी, वनिता सों जाण्यों स्थानी ॥११ तजि आलस अरु परमाद, गाले जल घरि महलाद । औरनिसों न हि बतरावे, जल-कण नहि पड़िवा पाव ॥१२ जल बूंद जु तनुमें परि है, अपनी निन्दा बहु करि है। दंड सकत- परमाण, पाले हिरदे जिन-आण ॥१३ दोहा जिह निवाण को नीर भरि घरमें आवे ताहि । छानि जिवाणी मेजियो, वाहि निवाणजि मांहि ॥१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only ९६३ www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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