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________________ १६२ श्रावकाचार-सग्रह तिन मांही जीव अपार, मरि हैं संसै नहिं धार । जाके करुणा न विचार, श्रावक नहिं जानि गंवार ।।८३ धीवर सम गिनिये ताहि, जल को न जतन जिहि पाहि । द्वय द्वय घटिका में नीर, छाणे मतिवंत गहीर ।।८४ अथवा प्रासुक जल करि के, राखं भाजन में धरि के। गृह-काज रसोई माहै, प्रासुक जल ही वरता है ।।८५ अनछाण्यो वरते नीर, ताको सुनि पाप गहीर । इक वरषि लगे जो पाप, धीवर कहि है सो आप ॥८६ अरु भील महा अविवेक, दौं अगनि देय दस एक । दोवनि को अघ इक वार, कीये है जो विस्तार ॥८७ अनछाण्यो वरते पानी, इस सम जो पाप बखानी। ऐसो डर धरि मन धीर, विनु गालें वरते न नीर ।।८८ उक्तंचसंवत्सरेण मेकत्वं चैवर्तकस्य हिंसकः । एकादश दवादाहे अपूत-जल संग्रही ।।८९ लतास्यतन्तुगलिते ये विन्दौ सन्ति जन्तवः । सूक्ष्मा भ्रमरमानापि, नैव मान्ति त्रिविष्टपे ॥९० अडिल्ल मकड़ी का मुख थकी तंत निकसै जिसौ, तिहि समान जलबिन्दु तणौ सुनि एक सौ। तामें जीव असंख उडै ह भ्रमर ही, जम्बूद्वीप न मांय, जिनेश्वर इम कही ॥९१ तथा चोक्तम् षट्त्रिंशदङ्गलं वस्त्रं चतुर्विंशतिविस्तृतम् । तद्वस्त्रं द्विगुणीकृत्य तोयं तेन तु गालयेत् ।।९२ तस्मिन्मध्यस्थिताञ्जीवान् जलमध्ये तु स्थाप्यते । एवं कृत्वा पिबेत्तोयं, स याति परमां गतिम् ॥१३ अडिल्ल वस्तर अंगुल छत्तीस सुलीजिये, चौड़ाई चौईस प्रमाण गहीजिये । गुढ़ी विना अतिगाढ़ौ दोबड़ कीजिये । इसे नातणे छांणि सदा जल पीजिये ।।९४ तामें हैं जे जीव जतनि करिकै सही, छांणा जलतें अधर नीर में खेपही। करुणा धरि चित नीर एम पीवे जिके, सुर पद संशय नाहिं, लहे शिवगति तिके ॥९५ चौपाई ऐसी विधि जल छाण्या तणी, मरयादा घटिका दुइ भणी । प्रासुक कियो पहर दुय जाणि, अधिक उसण वसु जाम वखाणि ॥९६ मिरच इलायची लौंग कपूर, दरब कषाय कसे लौ चूर । इन तें प्रासुक जल कर वाय, ताको भाजन जुदो रहाय ॥९७ इतनी प्रासुक कीजे नीत, जाम दोय मध्य होइ व्यतीत । मरयादा ऊपर जो रहाय, तामें सम्मूर्छन उपजाय ॥९८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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