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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष गेहूँ बाजरा की घूघरी, रांध मुरमुरा सेकें धरी। मका जवार उकालैं जाण, फूला कर बेंचें मन आण ॥३७ कर भूगड़ा सैकै चणा, मूग मोंठ चौलालिक घणा। इत्यादिक नाजहिं सिकवाय, बिकै चबैणो सब जन खाय ॥३८ शूद्र तुरक भुंज्या न्हालि, तिनके भाजन में जल घालि । करै चबैणा ताजा जानि, सबै खाय मन भ्रान्ति न आनि ॥३९ जो मन होय चबणो परै, तो खइये इतनी विधि करै। निज धरतें लीजे जल नाज, विनहिं सिकावे व्रत धरि साज ॥४० पीतल लोह चालणी मांहि, छांनि लेय बालू कड़वाहि । इह किरिया नीकी लखि रोति खाहु चबैणो मन धर प्रीति ॥४१
अथ चौला की फली, कैर करेली सांगली आदि को कथन चौल हरो चौंला की फली, आवै गांव गांव तें चली। तिनको शूद्र सिजाय सुखाय, बैंचें सो सगरे जन खाय ॥४२ जल-भाजन शूद्रन को दोष, वासी वटवोयो अघ कोष । बह दिन राखें जिम उपजाय, तिनहिं विवेकी कबहूँ न खाय ।।४३ कर करेली अरु सांगरी, शद्र उकालैं ते निज घरी । पड़ें कुंथवा वरषा काल, यह खैवो मति-हीनी चाल ॥४४ अंवहलि कैरी की जो करै, जतन थकी राखै निज धरै। जल बरसै अरु नाहीं मेह, तब लों जोग खायबो तेह ॥ ४५ वरषा काल मांहि निरधार, उपजै लट कुंथवा अपार । इन परि चौमासो जब जात, ताहि विवेकी कबहुं न खात ॥४६ नई तिली तिल नीपजै जबै, फागुण लो खाइये सबै। सो मरजाद तेल परमाण, होली पीछे तजहु सुजान ।।४७ होली पछिलौ है जो तेल, तिनमें जीव-कलेवर-मेल। यातें होली पहिलो गही, ले राखें श्रावक घर मही ॥४८ सो वरते कातिक लों तेल, तिन भवि सुनके लखिवो मेल । चरमतणी जो दै ताखड़ी, बुधजन घर राखै नहिं घड़ी ॥४९ तामें तोलै चून रु नाज, चरम वस्तु है दोष समाज । कागद काठ वांस अर घात, राखै किरियावन्त विख्यात ॥५० सिंघाड़ा अति कोमल आंहि, होली गये जीव उपजांहि । ताकी होय मिठाई जिती, खैवो जोग न भाखी तिती ॥५१ केळ करिवि घूघरी खाय, केउक सीरो पुड़ी बनाय । होली पहिली तो सब भली. खैवो जोग कही मनरली ॥५२ पी, उपजै जीव अपार, क्रिया दया पालक नर सार । तब इनकों तो भीटै नांहि, कहीं धर्म साधै तिन खांहि ॥५३
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