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श्रावकाचार-संग्रह दूध गिदौड़ी के गूजरी, दोहै पीछे जाय बहु धरी । निज वासण में घर ले जाहि, करै गिदौड़ी मावो ताहि ॥५४ दोष अधिक काचा पयतणों, ताको कथन कहांलों भणों। अविवेकी समझै नहिं ताहि, समझाये हम तिन ही आहि ॥५५ इतनी तो निजस्यां लखि लेहु, मावो करतां पयमें तेहु । पड़े जीव उसमें लघु जाय, अरु फिर रात तणीका बात ॥५६ ताहू में पुनि वरषा काल, पड़े जीव तिहि निसि दर हाल । माछर डांस पतंगा आदि, मावो इसो खात शुभवादि ॥५७ सदा पाप-दायक है सही, पाप-थकी दुरगति-दुख लही। लंपट भख छुट नहिं जदा, निसिको कियो न खइये कदा ॥५८ जो खैवो विनु रह्यो न जाय, तो पय जतन थकी घर ल्याय । मरयादा बीते नहिं जास, क्रिया-सहित मावो करि तास ॥५९ जिह्वा-लंपटता वशि थाय, तो ऐसी विधि करि के खाय । कोऊ छलप करैगो एम, उपदेश्यो आरंभ बहु केम ॥६० वामें काचा पयको दोष, अरु त्रस जीव-कलेवर-कोष । यातें जतन थकी जो करै, जतन साधि भाष्यों है सिरै ॥६१ जतन थकी किरिया हूँ पलै, जतन थकी अदया हूँ घटै। जतन थकी सधि है विधि धर्म, जतन मुख्य लखि श्रावक-कर्म ॥६२
शोष के घृत की मर्यादा
दोहा मरयादा सब शोध की, कहीं मूल गुण-मांहि । निहिं व्रत में भोजन करै, धिरत शोध को खाहि ॥६३
छन्द चाल घर में तो निपर्ज नाही, विकलपता लखि मोल गहाहीं। तिह शोध बखाण कूर, शुभ क्रिया न तिनकें मूर ॥६४ वास्या लघु ग्रामावास, जल आदि क्रिया नहिं तास । तिनके घर को जो धीव, धर भाजन मलिन अतीव ॥६५ ले आवै शहर मझार, बैंचेउ लोभ विचार । ड्योढ़ा दुगुणा ले दाम, लखि लाभ खुशी ह ताम ॥६६ तौलत परिहै तह माखी, करते काढे दे नाखी। जीवत मूई अहि जान, तिहि जतन न कबहूं ठाने ॥६७ परगांव तणी इह रीति, सुन शहर तणी विपरीति । बेचे दधि छाछ विनाणी, तिनके घरको घृत आणी ॥६८ खावत हैं जे मति-हीण, तसु सकल क्रिया व्रत क्षीण । निसि सो तिय दूध मंगावे, तुरतहिं नहिं अगनि चढ़ावै ।।६९
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