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________________ किशनसिंह-कृत क्रियाकोष इह तें अघ उपजै भारी, पुनि तिह महि घृत बहु डारी। दे जामण दही जमावै, दधि मथि के घीव कढ़ावै ॥७० लूणी बहु बेला राखै, उपजौ अघ वाणी भाखै । बेचे ले बहुत पईसा, पुनि पाप जिही नहिं दीसा ॥७१ जो धिरत शोध को माँनें, व्रत में जो खैवो ठाने । दूषण ऐसो लखि ताम, जैसो घृत धरिये चाम ॥७२ सुनिये अब अघकर बात, जानत जन सकल विख्यात । निरमाय लखे है माली, भो जग सुनि लेहु विचारी ॥७३ तिन पास मंगावे घीव, अरु शोध गिनै जे जीव । तिनकी छुई जो वस्त, दोषीक गिणों जु समस्त ॥७४ आचार कहो शुभ भाय, तिनकों जो वस्तु मिटाय । आचरिये कबहूँ नाहीं, जिनवर भाष्यो श्रुत माहीं ॥७५ लघु ग्राम कोस दस वास, निज समधी तहां निवास । किंकर भेजे तापाई, व्रत जोग धिरत मंगवाई ॥७६ जाता आता बहु जीव, विनसैं मारगमें अतीव । त्रस घात मंगावत होई, सो शोध कहो किम जोई ।।७७ कोई प्रश्न करै इह जागें, श्रावक होते जे आगें । घृत खाते अक कछु नांहीं, हम मन इह शंका आंही ।।७८ ताके समझावन लायक, भाई अति ही सुखदायक । श्रावक जु हुते व्रत धारी, तिन घृत विधि सुनि यह सारी ॥७९ चौपाई जाके घर महिषी या गाय, पके ठाम तिन ही बंधवाय । सरद रहै न हि ठाम मझार, बालू रेत तहां दे डार ।।८० किंकर एक रहे तिन परै, सो तिन की इम रक्षा करै। देय बुहारी सांझ-सबार, उपजे नहीं जीव तिन ठार ॥८१ दोय-तीन दिन बीतें जबै, प्रासुक जलहिं न्हवावे तबै । परनाली राखै तिह ठाहिं, वहे मूत्र तिनके ढिंग नाहि ।।८२ वासन धर राखै तिहि तले, तामें परै मूत्र जा टले ।। सूके ठाम नाखि है जाय, जहाँ सरद कबहूँ न रहाय ।।८३ गोबर तिनको ह नित सोय, आप गेह थापै नहि कोय । औरनिको मांग्यो न हिं देय, त्रस सिताव तामें उपजेय ।।८४ बालू रेत नाखी जा मांहि, करड़ो करि सो देय सुखांहि । चरवे को रोन' न खिदाय, जल पीवे निवाण नहिं जाय ।।८५ १. बरण्य जंगल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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