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श्रावकाचार-संग्रह प्रथम मिथ्यात अबोध अति, जहां न निज-परबोध । अघ अधर्म विचार नहि, तीव्र लोभ पर क्रोध ॥१००० दूजी मिश्र मिथ्यात है, कछु इक बोध प्रबोध । तीजी सम्यक प्रकृति जो, वेदक सम्यक बोध ॥१ कछु चंचल कछु मलिन जो, सर्वघाति नहिं होइ। तीन माहि इह शुभ तहूँ, वरजनीक है सोइ ॥२ ए मिथ्यात जु तीन विधि, कहे सूत्र अनुसार । सुनों चौकरी बात अब, चारि चारि परकार ॥३ क्रोध जु पाहन-रेख सो, पाहन-यंम जु मान। माया बांस जु जड़-समा, अति परपंच बखान ॥४ लोभ जु लाखा रंग सो, नरक-योनि दातार। भरमावै जु अनंत भव, प्रथम चौकरी भार ॥५ हलरेखा सम क्रोध है, अस्थि-थंभसम मान। माया मीढ़ा सींगसी, तिथि षट मास प्रमान ॥६ रंग आलके सारखो, लोभ पशुगति दाय । इह दूजी है चौकरी, अप्रत्याख्यान कहाय ॥७ रथरेखा सम क्रोध है, काठथंभ-सो मान । गोमूत्रकी जु वक्रता, ता सम माया जान ||८ लोभ कसूमा रंगसो, नरभव-दायक होय। दिन पंदरा लग वासना, तृतीय चौकरी सोइ ॥९ जलरेखा सो रोस है, बेंतलता सो मान । माया सुरभी चमरसी, लोभ पतंग समान ॥१० तथा हरिद्रारंग सो, सुरगति-दायक जेह । एक महरत वासना, अन्त चौकरी लेह ॥११ कही चौकरी चारि ये, च्यार हि गतिको मूल । चारि चौकरी परिहरै, करै करम निरमूल ||१२ मुनिने तीन जु परिहरी, धरी शांतता सार। चौथी हुको नाश करि, पावै भवजल पार ॥१३ सकल कर्मको प्रकृति सौ, अर ऊपरि अड़ताल । मुनिवर सर्व खपावहीं, जीवनिके रिछपाल ॥१४ मनिपद बिन नहिं मोक्ष पद, यह निश्चय उर-धारि । मुनिराजनिकी भक्ति करि, अपनों जन्म सुधारि ॥१५
मुनि हैं निर्भय वनवासी, एकान्त वास सुखरासी । निज ध्यानी आतमरामा, जगकी संगति नहि कामा ॥१६
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