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दौलतराम-कृत क्रियाकोष नहिं दान समान जु कोई, सब व्रतको मूल जु कोई । यामें भविजन चित धारो, संसारपार जो चाहो ॥८३ जो भाषे त्रिविधा पात्रा, तिनिमें मुनि उत्तम पात्रा। हैं मध्यम पात्र अणुव्रती, समद्दष्टो जघन्य अवत्ती ।।८४ इन तीननिके नव भेदा, भाषे गुरु पाप-उछेदा । उत्तममें तीन प्रकारा, उतकृष्ट मध्य लघु धारा ॥८५ उत्तम तीर्थकर साधू, मध्य सु गणधर आराधू । तिनतें लघु मुनिवर सर्वे, जे तप व्रतसूं नहिं गर्वे ॥८६ ए त्रिविध उत्तमा पात्रा, तप संजम शील सुमात्रा । तिनकी करि भक्ति सु वीरा, उतरै जा करि भव-नीरा ॥८७ मुनिवर होवै निरग्रंथा, चालै जिनवरके पंथा। जे विरकत भव-भोगनितें, राग न द्वष न लोगनितें ॥८८ विश्राम आपमें पायौ, काहूमें चित्त न लायो । रहनों नहिं एकै ठौरा, करनों नहिं कारिज औरा ॥८९ धरनूं निज-आतम-ध्यान, हरनूं रागादि अज्ञान । नहिं मुनिसे जगमें कोई. उतरें भव-सागर सोई ।।९०
वोहा मोह कर्मकी प्रकृति सहु, होय जु अट्ठाईस । तिनमें पन्द्रह उपशमें, तब होवे जोगीस ॥९१ पन्द्रा रोकें मुनिव्रतें, ग्यारा अणुव्रति रोध । सात जु रोक पापिनी, सम्यग्दरसन बोध ।।९२ क्रोध मान छल लोभ ए, जीवोंकों दुखदाय । सो चंडाल जु चौकरी, वरजें श्रीजिनराय ॥९३ अनंतानुबन्धी प्रथम, द्वितीय अप्रत्याख्यान । प्रत्याख्यान जु तीसरी, अर चौथी संजुलान ॥९४ तिनमें तीन जु चौकरी, अर तीन मिथ्यात। ए पंदरा प्रकृत्तियां, तजि व्रत होइ विख्यात ॥९५ पहली दूजी चौकरी, बहुरि मिथ्यात जु तीन । ए ग्यारां प्रकृती गया, श्रावकव्रत लवलीन ॥९६ प्रथम चौकरी दूरि है, टरै तीन मिथ्यात । ए सातों प्रकृति टयां उपजे समकित भ्रात ॥९७ तीन चौकरी मुनिव्रतें, वे अणुवत विधान । पहली रोकें समकिती, चौथी केवलज्ञान ॥९८ तीन मिथ्यात हा महा, मुनिव्रत अर अणुव्रत। अव्रत सम्यककू हतें, करहिं अधर्म प्रवृत्त ।।९९
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