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श्रावकाचार-संग्रह
अथवा काम-उद्दीपका, भोजन अति हि अजोगि । ते कबहूँ करनें नहीं, बरजें देव अरोगि ||६६ बहुरि तजी बुध पंचमों, अतीचार अघरूप । दुःपक्व आहार जो अव्रतको जु स्वरूप ॥६७ अति दुर्जर आहार जो, वस्तु गरिष्ठ सु होय । नहीं योग्य जिनवर कहें, तजें धन्य हैं सोय ॥ ६८ कछु क्यो कछु अपक हो, दुखसों पचे जु कोय । सोनहि लेबो व्रतनिकों, यह जिन आज्ञा होय ॥६९ अतीचार पाँचौ तज्या, व्रत निर्मल हृ' वीर । निर्मल व्रत प्रभाव, लहै ज्ञान गम्भीर ॥७०
चाल छन्द
घरि वरत बारमो मित्रा, जो अतिथि-विभाग पवित्रा । इह चौथो शिक्षाबत्ता, जे याकों करें प्रवृत्ता ॥७१ पावें सुर शिव भूती, वा भोगभूमि परसूती । सुनि या ब्रतको विधि भाई, जा विधि जिनसूत्र बताई ॥७२ त्रिबिधा हि सुपात्रा जगमें, जगको नौका जिन-मगमें। महाव्रत अणुव्रत समदृष्टी, जिनके घट अमृतवृष्टि ॥७३ तिनकों नवधा भक्ती तें, श्रद्धादि गुणनि जुक्ती तें । देवी चउदान सदा जो, सो है व्रत द्वादशमो जो ॥७४ चउ दान सबों में सारा, इनसे नहि दान अपारा । भोजन औषध अरु ज्ञाना, पुनि दान अभय परवाना ।।७५ भोजन दानहिं धन पावे, औषधि करि रोग न आवे । श्रुत-दान बोध जु लहाई, इह आज्ञा श्रीजिन गाई || ७६ अभया है अभय प्रदाता, भाषें प्रभु केवल ज्ञाता । इक भोजन दानें माहीं, चउ दान सधैं शक नाहीं ॥७७ नहि भूख समान न व्याधी, भव माहीं बड़ी उपाधी । तातें भोजन सों अन्या, नहि दूजी औषध धन्या ॥७८ पुनि भोजन-बल करि साधू, करई जिन-सूत्र अराधू | भोजनतें प्राण अधारा, भोजनतें थिरता धारा ॥७९ तातें चउदान सधे हैं, दानें करि पुण्य बंधे हैं । सो सहु बांछा तजि ज्ञानी, होवे दानी गुण-खानी ॥८० इह भव पर भवको भोगा, चाहें नहि जानहि रोगा । दे भक्ती करि सुपात्रनिकों, निजरूप ज्ञानमात्रनिकों ॥ ८१ सिंह रतनत्रयमें संघो, थाप्यो चउविधिको नर संघो । सो पावे भुक्ति विमुक्ती, इह केवलि भाषित उक्ती ॥८२
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