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________________ दौलतराम-कृत क्रियाकोष और न एको है जु बिकारा, तातें महाव्रती अणगारा । तजै भोग-उपभोग सबैही, मुनिवरका शुभ विरद फबेहो ॥४९ शक्ति प्रमाण गृही हू त्यागें, त्याग बिना व्रतमें नहिं लागे। राति दिवसके नेम विचारै, यम-नियमादि धरै अघ टारै ।।५० यम कहिये आजन्म जु त्यागा नियम नाम मरजादा लागा। यम नियमादि बिना नर देही, पसुहतें मूरख गनि एही ॥५१ खान पान दिनहीको करनों, रात्रि चतुर्विध हार हि तजनों । नारी सेवे रैनि विष ही, दिन में मैथुन नाहिं फबै ही ।।५२ निसि ही नितप्रति करनों नाही, त्याग विराग विवेक धराहीं । नियम माहिं करनों नित नेमा, सीम माहिं सीमाको प्रेमा ॥५३ करि प्रमाण भोगनिको भाई, इन्द्रिनको नहिं प्रबल कराई। जैसे फणिकू दूध जु प्यावौ, गुणकारी नहिं विष उपजावी ॥५४ जो तजि भोग भाव अधिकाई, अलप भोग सन्तोष धराई । सो बहुती हिंसातें छूटयौ, मोहवटें नहिं जाय जु लूटयौ ।।५५ दया भाव उपजौ घट ताके, भोगभावकी प्रीति न जाके । भोगुपभोग पापके मूला, इनकू सेवें ते भ्रम मूला ॥५६ दोहा हिंसाके कारण कहे, सर्व भोग उपभोग । इनको त्याग करै सुधी, दयावन्त भवि लोग ॥५७ सो श्रावक मुनि सारिखा, भोग अरुचि परणाम । समता धरि सब जीव परि, जिनके क्रोध न काम ॥९८ भोगुपभोग प्रमाण सम, नहीं दूसरो और । तृष्णाको क्षयकार जो, है ब्रत्तनि सिरमौर ॥५९ अतीचार या वृत्तको, तजो पंच दुखदाय । तिन तजियां व्रत्त बिमल है, लहिये श्री जिनराय ॥६० नियम कियौ जु सचित्तको, भूलिर करै अहार । सो पहलो दूषण भयो, तजि हूजे अविकार ॥६१ प्रासुक वस्तु सचित्त सों, मिश्रित कबहूँ होय। उष्ण जले ज सीतल उदक, मिल्यो न लेव होय ॥६२ गृहें दोष दूजो लगे, अब सुनि तीजो दोष । जो सचित्त सम्बन्ध है, तजो पापको पौष ॥६३ पातल दूनां आदि जे, वस्तु सचित्त अनेक । तिनसों ढक्यौ अहार जो, जीमें सो अविवेक ॥६४ सुनि चौथो दूषण सुधी, नाम जु अभिषव जास । याको अर्थ अयोग्य है, ते न भखै जिनदास ॥६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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