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दौलतराम-कृत क्रियाकोष छट्टतीव्र जु उदे, सातवें मंद जु इनको । इनमें षट हास्यादि, आठवें अन्त जु तिनको ॥ क्रोध मान अर कपट नो वेद तीनही नहिं यां । चौथे चौकरि लोभ सूक्षम दश वेठाण विनाशिया ॥५६
चाल छन्द एकादशमा द्वादशमा, पुनि तेरम अर चौदशमा। समभावतने गुणथाना, ए चार कहे भगवाना ॥५७ ग्यारम है पतन स्वभावा, डिगि जाय तहाँ समभावा । बारहमें परम पुनीता, जासम नहिं कोइ अजीता ॥५८ तेरम चोदम गुणठाणा, परमातरूप बखाना। समभाव तहाँ है पूरा, कीये रागादिक चूरा ॥५९ नहिं यथाख्यात सौ कोई, समभाव-सरूपी सोई॥ इह सम उतपत्ति बताई. रागादिक नाश कराई॥६० अब सुनि सम लक्क्षण संता, जा विधि भार्षे भगवंता। जीवो-मरिवौ सम जाने, अरि-मित्र समान बखाने ॥६१ सुख-दुख अर पुण्य जु पापा, जानै सम ज्ञान-प्रतापा। सब जीव समान विचारे, अपने से सर्व निहारै ॥६२ चिंतामणि-पाहन तुल्या, जिसके समभाव अतुल्या। सुरगति अर नरक समाना, सब राव रंक सम जाना ॥६३ जिनके घर में नहिं ममता, उपजी सुखसागर समता। वन-नगर समान पिछार्ने, सेवक साहिव सम जानें ॥६४ समसान-महल सम भावै, जिनके न विषमता आवै । है लाभ-अलभ समाना, अपमान-मान सम जाना ॥६५ गिरि-ग्राम समान जिनूंके, सुर-कीट समान तिनूंके । सुरतरु-विषतरु सम दोऊ, चन्दन-कर्दम सम होऊ॥६६ गुरु-शिष्य न भेद विचारै, समता परिपूरण धारें। जाने सम सिंह-सियाला, जिनके समभाव विशाला ॥६७ संपति-विपदा द्वै सरिखी, लघुता-गुरुता सम परखी। कंचन लोहा सम जाके, रंच न है विभ्रम ताके ॥६८ रति-अरति हानि अर वृद्धी, रज सम जानें सब ऋद्धी। खर-कुंजर तुल्य पिछाने, अहि फूलमाल सम जानें ॥६९ नारी नागिन सम देखै, गृह कारागृह सम पेखे । सम जानें इष्ट-अनिष्टा, सम मानें अबलि-बलिष्टा ॥७० जे भोग रोग सम जाने, सब हर्ष रोग सम मार्ने । रस नीरस रंग कूरंगा, सुसबद कुसबद सम अंगा ॥७१
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