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श्रावकाचार-संग्रह शीतल अर उष्ण समाना, दुरगंध सुगंध प्रमाना । नहिं रूप कुरूप जु भेदा, जिनके समभाव निवेदा ॥७२ चक्री अर निरधन दोई, कछु भेदभाव नहिं होई। चक्राणी अर इन्द्राणी, अति दीन नारि सम जाणी ॥७३ इन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्रा, पुनि सर्वोत्तम अहमिन्द्रा। सूक्षम जीवनि सम देखे, कछु भेद भाव नहिं पेखें ॥७४ थुति निंदा तुल्य गिर्ने जो, पापनिके पुज हनें जो । कृमि कुन्थुकृष्ण सम तुल्या, पायो समभाव अतुल्या ॥७५ सेवा उपसर्ग समाना, वैरी बांधव सम माना। जिनके द्विज शुद्र सरीखा, सीखी सदगुरुकी सीखा ॥७६ बन्दै निन्दै सो सरिखो, समभावनि तन जिन परिखो। समतारस पूरण प्रगटयो, मिथ्यात महाभ्रम विघटयो ।।७७ तिनकी लखि शांत सु मुद्रा, रौद्र जु त्यागै अति रुद्रा। चीता मृगवर्ग न मारे, अति प्रीति परस्पर धारै ॥७८ गरड़ा नहिं नाग विनास, नागा नहिं दादर नासै । उन्दर मारै न विडाला, पंखिनिसौं प्रीति विशाला ॥७९ तिर विद्याधर नर कोई, सुर असुर न वाधक होई । काहूकू राव न दंडे, दुरजन दुरजनता छंडै ।।८० काहूके चोर न पैसे, चोरी होवे कहु कैसे। लखि समता-धारक मुनिकों, त्यागै पापी पापनिकों ॥८१ डाकिनिको जोर न चाले, हिंसक हिंसा सब टाले । भूता नहिं लागन पावै, राक्षस व्यंतर भजि जावें ॥८२ मंतर न चलें जु किसीके, ये हैं परभाव रिषीके । कोहू काहू नहिं मारे, सब जीव मित्रता धारै ।।८३ हरिनी मृगपतिके छावा, देखै निज-सुत समभावा । बाघनिषू गाय चुखावे, मार्जारो हंस खिलावै ॥८४ ल्याही अर मीढ़ा इकठे, नाहर अर बकरा बइठे। काहको जोर न चाले, समभाव दुखनिकों टाले ।।८५ रोगिनि के रोग नसावे, सोगिनि सोग बिलावै । कारागृह तें सब छूटें, कोउ काहू कोनहिं लूटे ।।८६ इह ब्रह्म सुविद्यारूपा, निरदोष विराग अनूपा । अति शांतिभावको मूला, समसों नहिं शिव अनुकूला ।।८७ नहिं समता पर छै कोऊ, सब श्रुतिको सार जु होक। जो ममताको परित्यागी, सो कहिये सम बड़भागी ॥८८ मन इन्द्रीको जु निरोधा, सो दम कहिये प्रतिबोधा। समतें क्रोधादि नशाया, दमतें भोगादि भगाया ।।८९
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