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दौलतराम-कृत क्रियाकोव
सम दम निरवाण प्रदाया, काहे धारौ नहि भाया । सब जेनसूत्र समरूपा, समरूप जिनेश्वर भूपा ॥९० समताघर चउविधि संघा, समभाव भवोदधि लंघा । पूरण सम प्रभुके पइये, तिनतें लघु मुनिके लइये ॥९१ तिनतें श्रावकके नूना, सम करे कर्मगण चूना । श्रावकर्ते चौथे ठाणें, कछुइक घटता परमाणें ॥९२
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सम्यक बिन समता नाहीं, सम नाहि मिथ्यामत माहीं । ममता है मोह सरूपा, समता है ज्ञान प्ररूपा ॥ ९३ सब छांड़ि विषमता भाई, ध्यावी समता शिवदाई | समकी महिमा मुनि गावे, समको सुरपति शिर नावे ॥ ९४ समस नहि दूजो जगमें, इह सम केवल जिनमगमैं । सम अर्थ सकल तप वृत्ता, सम है मारग निरवृत्ता ॥ ९५ जो प्राणी समरस भावै, सो जनम मरण नहि पावे । यम नियमादिक जे जोगा, सबमें समभाव अलोगा ||९६ समको जस कहत न आवै, जो सहस जीभ करि गावै । अनुभव अमृतरस चाखे, सोई समता दिढ़ राखे ॥९७
इति समभाव निरूपण ।
अथ सम्यक्त्व वर्णन
सवैया इकतीसा ।
अष्ट मूलगुण कहे, बारह बरत कहे, कहे तप द्वादश जु समभाव साधका ।
सम सा न कोऊ और सर्वको जु सिरमोर, याही करि पावै ठौर आतम आराधका । विषमता त्यागि अर समताके पंथ लागि, छाडौ सब पाप जेहि धर्मके विराधका । ग्यारे पड़िमा जु भेद दोषनिको करै छेद, धारै नर धीर धरि सके नाहिं बाधका ॥९८
दोहा
पड़िमा नाम जु तुल्यकौ, मुनिमारगकी तुल्य । मारग श्रावकको महा, भाषै देव अतुल्य ॥९९ बहुरि प्रतिज्ञाकों कहें, पड़िमा श्रोभगवान । होंहि प्रतिज्ञा धारका, श्रावक समतावान || १७०० मुनिके लहुरे वीर हैं, श्रावक पड़िमाधार । मुनि श्रावकके धर्मको, मूल जु समकित सार ॥१ सम्यक चउ गतिके लहैं, कहै कहालों कोइ । पै तथापि वरणन करूं, संवेगादिक सोइ ॥ २
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