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३१.
श्रावकाचार-संग्रह
दोहा अनंतानुबंधी प्रथम, द्वित्तीय अप्रत्याख्यान । तीजी प्रत्याख्यान है, चउथी है संजुलान ॥४३ कही चौकरी चारि ए, चारों गतिको मूल । चार-तनी सोला भई, भेद मोक्ष प्रतिकूल ||४४ हास्य अरति रति शोक भय, दुरगंधा दुखदाय । नो-कषाय ए नव कही, पंचबीस समुदाय ॥४५ राग द्वेषकी प्रकृति ए, कही पचीस प्रमान । तीन मिथ्यात समेत ए, अट्ठाईस बखान ॥४६ जायं जब सब ही भया, तब पूरण समभाव । यथाख्यातचारित्र है, क्षीणकषाय प्रभाव ॥४७ मुनिके जातें अलप हैं, छठे सातमें ठाण । पन्द्रा प्रकृति अभावर्ते, ता माफिक सम जाण ॥४८ श्रावकके यातें अलप, पंचम ठाणे जाण । ग्यारा प्रकृति गयां थकों, ता माफिक परवाण ॥४९ श्रावकके अणुवृत्त है, इह जानों निरधार । मुनिके पंच महाव्रता, समिति गुपति अविकार ।।५० श्रावकके चौथे अलप, चौथो अव्रत ठाण । तहां सात प्रकति गई, ता माफिक ही जाण ॥५१ गुणठाणा समभावके, 8 ग्यारा तहकीक । चौथे सू ले चौदमा-तक नहिं बात अलीक ।।५२ चौथे जघन जु जानिये, मध्य पंचमे ठाण । छट्ठासूदसमा लगै, बढ़तो बढ़तो जाण ॥५३ बारम तेरम चौदवें, है पूरण समभाव । जिन शासनको सार यह, भव-सागरकी नाव ॥५४
छप्पय छट्ठमसों ले....."जुगल मुनीके जाणा। तिनको सुनहुं विचार, जैनशासन परवाणा ॥ छट्टम सप्तम ठाण, प्रकृति पंद्रा जब त्यागी। तीन मिथ्यात विख्यात, चौकरी ईक तीन उ भागी । तब उपजे समभावई, श्रावकके अधिको महा। पे तथापि तेरा रही, तातें पूरण नहिं कहा ॥५५ रहो चौकरी एक, और गनि नो-कषाय नव । तिनको नाश करेय, सो न पावै कोई भव ।।
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