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________________ ३५९. दौलतराम-कृत क्रियाकोष चउ माया चउ लोभ अर, हासि रती त्रय वेद । ए तेरा हैं रागकी, देहिं प्रकृति अति खेद ॥३४ चार क्रोध अर मान चउ, अरति शोक भय जानि। दुरगंधा ये द्वादशा, प्रकृति द्वेषकी मानि ॥३५ लगीं अनादि जु कालकी, भरमावै जु अनंत । विनसें भव्यनिके भया, है न अभविके अन्त ॥३६ रोकै सम्यकदृष्टिकों, कोकै सकल विभाव । ढोकै मिथ्याष्टिकों, नहिं जामें समभाव ॥३७ अनंतानुबन्धी इहै, प्रथम चौकरी जानि । त्यागै तीन मिथ्यात जुत, सो समदृष्टी मानि ॥३८ छप्पय छन्द समकित बिनु नहिं होत, शांतिरूपी समभावा । चौथे गुण ठाणे जु कछुक, समभाव लखावा। द्वितिय चौकरी बहुरि, सोह अव्रतमय भाई। नाम अप्रत्याख्यान, जा छतें व्रत न पाई ॥ दोय चौकरी तीन मिथ्या, त्याग होय श्रावकव्रती। प्रगटै गुणठाण जु पंचमैं, पापनिकी परिणति हती ॥३९ चढे तहां समभाव, होय रागादिक नूना। अवततें गनि ऊंच, साधुव्रत्तनितें ऊना। ततिय चौकरी जानि, नाम है प्रत्याख्यानी। रोकै मुनिव्रत एह, ठाण छट्ठो शुभध्यानी ॥ तीन चौकरी तीन मिथ्या, छांडि साधु वै संजमो । वृद्धि होय समभावई, मन इन्द्री सब ही दमी ॥४० दोहा चौथी संजुलना सही, रोकै केवलज्ञान । जाके तीव्र उदय-थकी, होय न निश्चल ध्यान ॥४१ छप्पय छन्द चौथी चौकरि टारे, नाम संजुलन जवै ही। नो-कषाय नव भेद, नाशि जावै जु सबै ही ॥ यथाख्यात चारित्र, ऊपजै बारम ठाणे। पूरण तब समभाव, होय जिनसूत्र प्रमाणे । क्रोध मान छल लोभ, चारू एक एक चउ भेद ए। हृ षोडश नव युक्त ये, मोह प्रकृति अति खेद ए ॥४२ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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