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________________ ११४ श्रावकाचार-संग्रह सालि मूग गोधूम अर चिणा, नाज विविध के जे है घणा। इन सबकी मरज्यादा गहो, बहुत जतन ते राखै सही ।।५० खरच जितो घर मांहीं होय, तितनो जान खरीदे सोय । विणज निमित्त जैतो परमाण, जीव पड़ें नहीं वैसे जाण ॥५१ बह उपाय करिकै राखि है, ऐसे जिनवाणी भाषि है। बरस एकमें बीके नहीं, दूनो बरस आइ है सही ॥५२ मरयादा माफिक थी जितो, अधिक लेय नहिं राखै तितो। दुपद परिग्रहमें एक है, बनिता दासी दासह लहै ॥५३ कुप्य परिग्रहमें ये जाण, चावा चन्दन अतर बखाण । रेसम सूत ऊनका जिता, कपड़ा होय कहा है तिता ।।५४ तिनहूँ की मरज्यादा गहै, यों नायक श्री जिनवर कहै । रुपया भूषण रतन भंडार, बहरि सोनइया अरु दीनार ॥५५ इनकी मरयादा करि लेहु, हंडबाई वासण पुनि एहु। बहु विधि तणा किराणा भणी, अवर खांड गुड़ मिश्री तणी ॥५६ मरयादा ले सो निरवहै, भंग कीये दूषण को लहै । मन बच काया पाले जेह, भव भव सुख पावे नर तेह ॥५७ सर्वया ३१ वरत करैया ग्यारा प्रतिमा धरया जे जे दोष के टरैया मनमाहीं ऐसे आनिके, जैसो है जिह थान जोग तैसो भोग उपभोग चरम तिजोग मांहि कह्यो है बखानिके। आदरेति तोही बाकी सहै छांडितेह ग्रंथसंख्या व्रत एह श्रावक को जानिके, तद्भव सुरथाय राज ऋद्धि को लहाय पार्व शिवथान दुषदानि भव भानिकै ॥५८ मरहटा छन्द जो परिग्रह राखै दोष न भाखै चित अभिलाष हीन, विकल्प मुकुलावे विषय बढ़ावे आठ न पावै तीन । बहु पाप उपावै जो मन भावे आवै बात कहीन, मूर्छा को धारी हीणाचारी नरक लहै सुख छीन ॥५९ छन्दभुजंगप्रयात कह्यो मूर्च्छना दोष भारी अवपारी, लहै श्वभ्र संसै न जाने लगा। तजे सर्वथा मोक्ष सौख्यं लहंती, यह जान भव्या न याको गहन्ती ॥६० इति परिग्रह परिमाण पंचम अणुवत सम्पूर्ण । अथ प्रथम दिग्गुणव्रत कथन लिख्यते। चौपाई चार दिशा विदिशा पुनि चार, ऊर्ध्व अधो दुहुँ मिलि दस धार । दिग व्रत पालन नर परवीन, मरयादा लंधै न कदी न ॥६१ जिते कोसलों फिरियो चहै, दिसा बिदिसा की संख्या गहै। अधिक लोभ को कारिज वणे, व्रत घर मरयादा नहि हणे ॥६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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