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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष जिम मरयादा की आखदी, तह लों जाय काम वसि पड़ी। घरि बैठा निति धारै ठीक, पाले कबहुं न चले अलीक ॥६३
दिगव्रत को पाले थकी, उपजे पुण्य अपार । सुरगादिक फल भोगवै, यामें फेर न सार ॥६४ मरयादा लीये बिना, फल उत्कृष्ट न होय । हमें पले नहिं इम कहै, बहै विकल मति जोय ॥६५
___ अब दिखत के अतिचार पांच लिख्यते । छन्द चाल मन्दिर निज पर की आड़, चड़ियो पुनि कोई पहाड़। करध संख्या सो कहिये, टाले ते दोषहि महिये ॥६५ तहखाना कूप रु वाय, गिरि गुफा माहिं जो जाय । इह अधो भूमि मरयाद, टालै दूषण परमाद ॥६६ दिसि विदिसि सोह जे लोनी, तिरछो चलवै मति दीनि । सो तिरयग गमन कहाई, अतोचार तृतीय इह थाई ॥६७ निज खेत भूमि जो थाय, सीमातें अधिक बधाय । सो खेत बृद्धि तुम जाणो, चौथो अतोचार बखाणों ॥६८ जिह वस्तु तणो परमाण, प्रथम ही कीयो जो जाण । तिहिको वोसरि सो जाई, विस्मृति जु अतीचार कहाई ॥६९
इति दिग्गुणव्रत सम्पूर्ण ।
अथ देशव्रत लिख्यते । चौपाई दिशि विदिशा के जे जे देश, जिह पुरलौं जो करिय प्रवेश । हरे नहीं मरयादा कोई, तिनको पलं देशवत सोई ।।७० मन सैन्य वारण के हेत, मन वच कर मरयादा लेत। आप जहां दिसि कबहु न जाय, तहातणो बड़ती नहीं खाय ॥७१
दोहा सो लहिये बिन बरत को, नेम न मूल कहाय । यातें गहिये आखड़ी, ज्यों फल विस्तर थाय ॥७२
अथ देशवत अतीचार पांच लिख्यते । छन्दचाल कीयो जे देश प्रमाण, तिह पार थकी साँस जाण । कोई नहीं वस्तु मंगावै, कबहूँ न लोभ बढ़ाने ॥७३ जहलों मरयादा ठानी, भांजे नहीं उत्तम प्राणी। भांजे मरयादा जास, अतीचार कहाने तास |७४ मरयादा वारै कोई, नरकों न बुलाने जोई। अरु आप नहीं बतलावै, बतलाए दोष लगाने ।।७५ निजरूपहि सों हँसिवाई, काहू जो देइ दिखाई। इह अतीचार चोथो ही, जिनदेव बखानो यों ही ॥७६
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