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श्रावकाचार-संग्रह
मरयाद जिकी जिहिं धारी, तिह वारे करतें डारी । कंकरी कपड़ों कछु और, पाहण लकड़ी तिहिं ठौर ॥७७ इत्यादिक वस्तु बहु नाम, बरनन कहाँ लों ताम । ऐसी मति समझो कोई, देसांतर ठोक दुहोई ॥७८ चैत्यालय वा घर मांहीं, अथवा देसांतर तांही। धरिहै जिम जो मरयाद, पालै तिम तजि परमाद ॥७९ इह देश वरत तुम जाणो, दूजो गुणवत परमाणो । अब अनरथ दंडज तीजो, बहु विधि तसु कथन सुणीजो ।।८०
इति दुतीय गुणवत।
अथ अनर्थ दंड तृतीय गुणव्रत कथन । चौपाई अनरथ दंड पंच परकार, प्रथम पाप-उपदेश असार । हिंसादान दूसरी जाण, तीजो खोटो पाप बखाण ॥८१ तुरिय कुशास्त्र कहै मन लाय, पंचम प्रमाद चर्या थाय । निज घर कारज विनु ते और, तिनके पाप तणी जे ठौर ।।८२ पसू विणज करवावै जाय, अरु तिह बीच दलाली खाय । हिंसा को आरंभ जु होय, ताको उपदेसै जु कोय ॥८३ मीठो लूण तेल घृत नाज, मादिक वस्तु मोम विनु काज । धोलि धाहम्या हरडे लाख, आलक{भा को अभिलाख ||८४ नील हींग आफू मोहरो, भांग तमाखू सावण खरो। तिल दाणासिण लोह असार, इन उपदेश देहि अविचार ।।८५ कूवा तलाब हवेली वाय, बाड़ी बाग कराय उपाय । कपड़ा वेगि धवावेहु मीत, निज ग्रह कारज राखहु चीत ।।८६ परधन हरण वणी जे बात, सिखवावै बहुतेरी घात । इतने पाप तणे उपदेश, कीये होय दुरगति परवेश ।।८७ चाकी ऊखल मूसल जिते, कुसी कुदाल फाहुडी तिते । तवो कड़ाही अरु दातलो, ए मांगा देवो नहीं भलो ॥८८ धनुष कृपाण तीर तरवार, जम घर छुरी कुहाड्या टार। सिल लोढो दांतण धोवणो, बाण जेवड़ा वेडी गणो ॥८९ रथ गाड़ी बाहण अधिकार, अगनि ऊपलादिक निरधार । इत्यादिक कारण जे पाप, मांगें दिये बढ़े संताप ।।९० याते व्रत धारी जे जीव, मांग्या कबहु न देय सदीव । द्वेष भाव करि वैर लखाय, वध बँधण मारण चित थाय ॥९१ परतिय देखि रूप अधिकार, ऐसो चितवन अति दुखकार । खोटे शास्त्र बखाणे जदा, सुणत दोष रागी 8 तदा ॥९२
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