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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष हिंसा अरु आरंभ बढाय, मिथ्याभाव उपरि चित थाय । जामें एते कहै बखाण, सो कुशास्त्र अघकारण जाण ||९३ विनही कारण गमन कराय, जल-क्रीड़ा औरनि ले जाय । वाले अगनि काम बिनु सोय, छेदै तरु अति उद्धत होय ॥९४ मेला देखण चलिये यार, असवारी यह खड़ी तयार। गोठि करै निज खरचै दाम, ए सव जाणि पाप के काम ।।९५ बहजन तणो मन लावै भलो, होला डेंहगी खावे चलो। सिरा बाजरा अर जुवारि, फलही भाजी सबनि पचारि ॥९६ चले सीधी लैजे हैं खेत, वस्त खबावन को मन हेत। अनरथ दंड न जाणे भेद, पाप उपाय लहै बहु खेद ॥९७ सुबो कबूतर मना जाण, तूती बुलबुल अघ की खाण । पंखियां और जनावर पालि, राखे बन्दि पीजरे घालि ।।९८ इनि पाले को पाप महंत, अनरथ दंड जाणिये संत। कूकर बांदर हिरण बिलाव, मोंढादिक रखिये घरि चाव ॥९९ पालि खिलावे हरखि धरेय, अनरथ दंड पाप फल खेय । मन हुलसे चित्राम कराय, त्रस जीवन सूरत मंडवाय ॥१०० हस्ती घोटक मोंडुक मोर, हिरण चौपद पंखो और । कपड़ा लकड़ी माटी तणा, पाखाणादिक करिहै घणा ॥१ जीव मिठाई करि आकार, करै विविध केहीण गवार । तिणिकों मोल लेई जण घणा, वाँटै घर घर में लाहणा ॥२ इह प्रमाद चर्या विधि कही, अनरथ दंड पाप की मही। जो न लगावै इनको दोष, सो धरमी अघ करिहै सोष ॥३
बोहा जो इस व्रत को पालि है, मन बच काय सुजाण । सो निहचे सुर पद लहै, यामें फेर न जाण ॥४ बिनु कारज ही सबनि को, दोष लगावै कोय । जाके अघ के कथन को, कवि समरथ नहिं होय ॥५ अघतें नरकादिक लहै, इह जानो तहकीक । अतीचार या वरत को, सुनों पाँच यह ठीक ।।६
छन्द चाल । अथ अतीचार अनरथ दंड का लिख्यते अती हास कोतूहल कार, मन माहीं सोच विचार । इह अतीचार एक जानी, जिन आगम को बखानी ।।७ क्रीड़ा उपजावन काम, बहु कला करै दुख धाम । नृत्यादिक देखण चाव, वादीगर लखि येह दाव ।।८ मुखते बहु गाली देई, बच ज्यों त्यों ही भाखेई । इह अतीचार भणि तीजो, बुधि त्यागह ढील न कीजो ॥९ मनमें चितै को काम, इतनो करस्यो अभिराम । तातें अधिको जु कराई, दूषण इह चौथो थाई ॥१०
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