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________________ १३८ बावकाचार-संग्रह जेती सामग्री भोग, अथवा उपभोग नियोग । पर वरजो मोल यहाँ ही, निज अधिको मोल चढ़ाहीं ॥११ लोलुपता अति ही ठान, हठ करिस्यों अपनो आने । इह पंचम दोष सुठीक, यामें कछु नाहिं अलीक ॥१२ भणिया ए पण अतीचार, बुधजन मन धरि सुविचार । निति ही इनको जो टालै, मन वच क्रम व्रत सो पाले ॥१३ इह कथन सबै ही भाख्यो जिन वाणी माफिक आख्यो। जो परम विवेकी जीव, इनको करि जतन सदीव ॥१४ जे अनरथ दण्ड लगावे, ते अघकों पार न पावै । अघ महा जगतको दाई, भव भांवर अन्त न थाई॥१५ बच भाषे लागो पाप, ऐसे हु न करेहु अलाप । मन बच तन व्रत जे पाले, ते सुरगादिक सुख भालै ॥१६ अनुक्रमि शिवथानक पावै, कबहूँ नहिं भवमें आवै । सुख सिद्ध तणा जु अनन्त, भुगतै जो परम महन्त ॥१७ दोहा गुणव्रत लखि इह तीसरो, अनरथ दण्ड सुजाणि । कथन कह्यो संक्षेपः, किशनसिंह मनि आणि ॥१८ इति गुणव्रत कथन सम्पूर्ण। अथ प्रथम सामायिक शिक्षावत लिख्यते । चौपाई सब जीवनिमें समता भाव, संयममें शुभ भावन चाव । आरति रुद्र ध्यान विहूँ त्याग, सामायिक व्रत जुत अनुराग ॥१९ प्राणी सकल थकी मुझ क्षांति, वेऊ क्षम मुझ परि करि मांति । मेरो बैर नहीं उन परी,वै मझ तें कुछ दोष न करी ॥२० इत्यादिक बच करि वि उचार, जो नर सामायिकको धार । परजिकासन गाढो तथा, शक्ति प्रमाण थापि है यथा ॥२१ पूर्वाह्निक मध्याह्निक चाल, अपराह्निक ए तीनों काल । मरयादा जेती उच्चरै, तेती वार पाठ सो करै ।।२२ दुहुँ आसनके दोषज जिते, सामायक जुत तजि है तिते । जो विशेष सुणि बाको चाव, ग्रन्थ श्रावकाचार लखाव ॥२३ हूँ एकाकी अवर न कोई, जुद्ध बुद्ध अविचल मय जोय । करमातें वेढयो न उ जाणि, मैं न्यारो तिहुँकाल वषाणि ॥२४ इस संसारै मुझको नाहि, मैं न किसीको इह जगमाहि । बन्ध्यो अनादि करमते सही, निहवै बन्धन मेरे नहीं ॥२५ राग दोष करि मेलो जदा, तिन दुहुइनतें मिलन न कदा। देह वसे तो रहत सरीर, चेतन शक्ति सदा मुझ तीर ॥२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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