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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
दोहा सुनहु भोग उपभोग के, अतीचार प्रणतेह । इनहिं टालि व्रत पालि है, वरती श्रावक जेह ॥९५
छन्द चाल मीले जु सचित जो आंही, भोगनि की वस्तु जु मांही। उपभोग वसन भूषण में, कमलादि गहें दूषण में ॥९६ एह अतीचार भणि एक, दूजो सुनि धरि सुविवेक । भोजन पातरि परि आवे, अरु सचित थकी ढकि ल्यावै ॥९७ अथवा वस्त्रादिक जांनी, धरि ढकि अर आणे प्राणी। वह दूजो दोष गणीजै, तीजो अब भवि सुणि लीजै ॥९८ जे सचित अचित बहु वस्त, भेलें मिलि जाल समस्त । जाको लेकै भोगीजै, इह अतीचार गणि लीजै ॥९९ मरयाद भोग उपभोग, कीनो जो वस्तु नियोग। तिहते जो लेय सिवाय, चौथो यह दूषण थाय ॥१०० कछु कोरो कछुयक सीजै, अथवा आस्या गह लीजै। लघु भख लेई अधिकाई, अति दुषकारी असन पचाई ॥१०१ दुहु पक्व अहार सु जानी, पंचम अतोचार बखानी। भोगोपभोग व्रत पारी, टाली इनकौं हितधारी ॥१०२
दोहा कथन भोग उपभोग को, कीयो यथावत सार । आगें अतिथि विभाग को, सुनियो भवि निरधार ॥१
इति भोगोपभोग शिक्षव्रत।
अथ चतुर्थ शिक्षाव्रत अतिथि संविभाग कथन । चौपाई प्रथम आहार दान जानिये, दुतीय दान औषध मानिये। तीजो शास्त्र दान हैं सही, अभय दान फुनि चौथो कही ॥२ लहै अहार थकी बहु भोग, औषध तें तनु होय निरोग। अभय थकी निरभय पद पाय, शास्त्र दान तें ज्ञानी थाय ॥३ अब पातर को सुनहु विचार, जैसो जिन आगम विस्तार । पात्र कुपात्र अपात्र हु जाण, दीजै जिम तिम करहु बखाण ॥ पात्र प्रकार तीन जानिए, उत्तम मध्यम जघन्य मानिये । मुनिवर श्रावक दरशन धार, कहै सुपात्र तीन विधि सार ॥५ तीन तीन तिहुँ भेद प्रमान, सुनहु विवेकी तास बखान । उत्तम में उत्तम तीर्थेश, उत्तम में मध्यम है गणेश ॥६
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