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श्रावकाचार-संग्रह जिन बागम की इह रीत, उपरान्त चलण विपरीत । जल लेन साक्ष ठहरायो, सबही मनि यों ही भायो ।।८० तो दूजो दरब मिलाई, लैनो नहिं योग्य कहांही। ताको दूषण इह जानो, भोजन दूजा जिम छानौ ।।८१ भोजन जिहि बिरियां कीजे, पानी तब उसन धरीजे। वे प्रासुक पानी लीजै, नहीं शक्ति जानि तजि दीजै ।।८२ कुमति ढुंढयादिक पापी, जिन मत ते उलटी थापी । हांडी को धोवण लेई, चावल धोवै जल लेई ॥८३ तिनको प्रासुक जल भाखै, ले जाय सांझ को राखे। एक तो जल काची जानी, अन्नादिक मिलि तसु आनी ॥८४ तामें घटिका दोय मांही, प्राणी निगोदिया थाही।
ताके अघको नहिं पार, मिथ्यामत भाव विकार ॥८५ उक्तंचगाया-अन्न जलं किंचि ठिई, पच्चक्खाणं न भुंजए भिक्खू । घड़ी दोय अंतरीया, णिगोइया हुँति बहु जीवा ।।८६
दोहा जो पोसह विधि आदरे, ते सुख पावै धीर । प्रमाद सेवे ते मुगध, किम लहिहै भवतीर ॥८७
इति प्रोषधोपवास त्रिविष वा सामान्य वर्णन सम्पूर्ण ॥
अथ तृतीय भोगोपभोग शिक्षाव्रत कथन लिख्यते ।
चौपाई
व्रत भोगोपभोग जे धरै, दोय प्रकार आखड़ी करै। जिम मरयाद मरण परयन्त, नियम सकति माफिक धरि सन्त ॥८८ अन्न पान आदिक तंबोल, अंजन तिलक कुंकुमा रोल। अतर अरगका तेल फुलेल, ते सह वस्तु भोग के खेल ||८९ एक बार हो आवे काम, बहुरि न दीसै ताको नाम । ते सब भोग वस्तु जानिये, ग्रन्थ कथन लखि इम मानिये ॥९० वस्त्र सकल पहिरन के जिते, निज घरमैं आभूषण तिते । रथ वाहन डोली सुख पाल, वृषभकुंभ हय गय सुविसाल ॥९१ वनिता अरु सेज्या को साज, भाजन आदिक वस्तु समाज । बार बार उपभोगवि जेह, सो उपभोग नहीं संदेह ॥९२ तिन दोन्यू में शकति प्रमाण, जम वा नियम करै जो जान । जनम पर्यन्त त्याग यम जानि, वरस मास पखि नियम बखानि ॥९३ दिन की पांच घड़ी मरयाद, करै सदैव तजे परमाद ।। किये प्रमाण महाफल सार, बिन संख्या फल नहीं लगार ॥९४
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