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________________ १४४ श्रावकाचार-संग्रह मुनि सामान्य अवर हैं जिते, उत्तम मध्यम जघन्य है तिते। मध्यम पात्र तीन परकार, तिह मांहे उत्तम मुनि सार ॥७ छुल्लक अहिलक दुहु ब्रह्मचार, अरु दसमी प्रतिमा व्रतधार । मध्यम मांहि उत्तम जानि, मध्यम मांहि मध्यम कहूँ बखानि ।।८ सात आठ नव प्रतिमाधार, मध्यम में मध्यम पातर सार। पहिली से षष्ठी पर्यन्त, मध्यम में पात्र जघन्य भणि सन्त ॥९ दरसनधारी जघन्य मझार, उत्तम क्षायिक समकित धार । क्षयोपशमी मध्यम गनि लेहु, जघन्य उपशमी जानौ एह ॥१० दोहा उत्तम पात्र सु तीन विधि, तिनहीं भेद नव जान । पुनि कुपात्र तिहुँ भेद को, वरणन कहों बखान ।।११ छन्द चाल गुन मूल अठाइस धार, चारित तेरह प्ररकार । मुनिवर पद को प्रतिपाल, तप करे कठिन दरहाल ॥१२ समकित शिव बीज न जाको, मिथ्यात उदै है ताको। ऐसो कुपात्र त्रिक माही, उत्कृष्ट कुपात्र कहाहीं ॥१३ व्रत धर श्रावक है जेह, मध्यम कुपात्र भनि तेह । गुरु देव शास्त्र मनि आने, आपापर कबहुं न जाने ॥१४ बाहिज कहै मेरे ठाक, अन्तर गति सदा अलीक । ते जघन्य कुपात्र सु जानों, सरधानी मन में आनो ॥१५ दोहा कह्यो कुपात्र विशेष इह, जिन वायक परमान । अब अपात्र के भेद तिहुं, सो सुनि लेहु सुजान ॥१६ छन्द चाल अन्तर समकित नहिं जाके, बाहिर मुनि क्रिया नहिं ताके । विपरीत रूप नहिं धारी, जिह्वादिक लंपट भारी ॥१७ उतकृष्ट अपात्र के लच्छन, परखै अति परम विचच्छन । ऐसे ही मध्यम जानो, समकित बिनु व्रत मनि आनो ॥१८ तनु स्वेत बसन के धारी, मानै हम हैं ब्रह्मचारी। दुजो अपात्र लखि योही, सुनि जघन्य अपातर जों ही ॥१९ गृहपति सम वसन धराहीं, मिथ्या मारग चलवाहीं। नर नारिन कों निज पाय, पाड़े अति नवन कराय ॥२० वचन आप चिरंजी भाख, मन में निज गुरु पद राखै। मिथ्यात महाघट व्यापी, ए जघन्य अपात्र जे पापी ॥२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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