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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष बाहिज अभ्यन्तर खोटे, नित पाप उपाव मोटे। श्रुत देव विनय नहिं जाने, नव रसयुत ग्रन्थ बखाने ॥२२ रुलि है भवसागर माही, यामें कछु सशय नाहीं। इनके बन्दक के जीव, दुरगति मंहि भ्रमहिं सदीव ॥२३
___ दोहा
पात्र कुपात्र अपात्र के, भेद भने सब पाँच । तिनको साखा पंच दस, विहन कहे सब सांच ॥२४ अव इनको आहार जू. श्रावक जिहि विधि देय । सो वर्णन संक्षेप तें, भवि चित धरि सुनि लेय ॥२५ दोष छियालिस टालिके, श्रावक के घर माहिं। वरती जनि पै जो असन, सुखकारी सक नाहिं ।।२६
छन्द चाल दिनपति की घटिका सात, चढ़िया श्रावक हरषात ।
द्वाराप्रेक्षण की वार, फासू जल निज कर धार ॥२७ मुनिवर आयो पड़िगाहै, अति भक्तिवन्त उरमाहै । दातार तने गुण सात, ता माहे हैं विख्यात ॥२८
पुनि नवधा भक्ति करेई, अति पुण्य महा संचेई । निज जनम सफल करि जानै, बहुविधि मुनि स्तुति वखाने ।।२९ मुनिबर वन गमन कराई, पीछे अति ही सुखदायी । भोजन शाला में जाई, जीमें श्रावक सुचि पाई ॥३० जो द्वारापेक्षण माहीं, मुनिवर नहिं जोग मिलाई । तो निज अलाभ करि जाने, चिन्ता मन में अति आने ॥३१ हिय में ऐसी ठहराय, हम अशुभ उदै अधिकाय । करिहै श्रावक उपवास, अथवा रसत्याग प्रकास ॥३२
. सोरठा। दान थकी फल होय, जो उत्कृष्ट सुपात्र को । सो सुनियो भवि लोय, अति सुखकारी है सदा ॥३३
सवैया। तोर्थङ्कर देवन को प्रथम आहार देय, वह दानपति तद्भव मोक्ष जाय है, पीछे दान देनहार दृग को धरया सार, श्रावक सुव्रतधार ऐसो नर थाय है ।। जो पै मोक्ष जाय तो तोमनै न कहाय, पहुं निश्चय हूँ नाहिं देव लोक को सिधाय है । पाय के अनेक रिद्धि नर सुर को, समृद्ध निकट सुभव्य निर्वाण पद पाय है ।।३४ उत्कृष्ट पात्रनिमें उत्कृष्ट तीर्थङ्कर, तिनि दान को तो फल प्रथम बखानियो। अब उत्कृष्ट त्रिकमाहिं रहै मध्य पुनि, जयनि मुनोस दानफल ऐसो जानियो । दानी हगवतधारी तिनही असन दिये, कलप वसे या सुर है है सही मानियों। अवर विशेष कछु कहनो जरूर इह, तेऊ सुनो भव्य सुखदाई मनि आनियो ॥३५ प्रथम मिथ्यात भावमध्य बन्ध मानव के, परयो पीछे दृगपाय व्रत धारी लयो है। पुनि मुनिराजनिको त्रिविधि सुविधिजत, दोष अन्तराय टालि असन सुदीयो है ।। ताहि बंध सेती उत्कृष्ट भोग भूमि जाय, जुगल्या मनुज थाय पुण्य उदै कीयो है। तहां आयु पूरी कर देवपद पाय अहो, मुनिन को दान देति ताको धनि जोयो है ॥३६
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