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श्रावकाचार-संग्रह
सुख उत्कृष्ट भोग भूमि के कछुक ओजों, कहूँ तीन पल्ल तहाँ आयु परमानिये । कोमल सरल चित्त पाइये कलप निति, दस परकार नानाविधि भोग विधि दानिये ॥ जुगल जनम थाय, मातापिता खिर जाय, छींक औ जमाही पाय ऐसी विधि मानिये। निज अंगूठा को सुधारस पान करि, दिन इकीस मांझ तनु पूरनता ठानिये ।।३७
दोहा तीन दिवस बीते पेछ, लघु बदरी परिमाण । लेय अहार सुखी महा, अरु निहार नहिं जाण ॥३७ उत्तम पात्र आहार को, दाता फल अति सार । पावै अचरज कछु नहीं, अब सुनियो निरधार ॥३८ कृत कारित अनुमोदन, तीनहुं सम सुखदैन । कही भली ताकी कथा, कहों यथा जिन बैन ॥३९
छप्पय छन्द बज्रजंघ श्रीमती सर्प, सरवर के ऊपरि । चारण जुगल सुमुनिहि, भक्त जुत दियो असनि परि, तहाँ सिंह अरु शूर, नकुल बानर चहुँ जीवहि । करि अनुमोदन बंध लियो, सुख युगल अतीवहि ।।
सुरहोई भुगति नर सुर सुखहं पत्र वृषभ तीर्थेश के। हुई धरि उग्र तप को भए सिवतिय पति नब वेस के ॥४० वज्रजंघ नृप आप अवर, श्रीमती त्रिया भनि, भोग भूमि ह्र जुगल, भुगति सुर सुखहि विविध नी । पुनि दिववासी देव नरपति, रिधि भुगति सुखदायक, दशमै भव नृप जीव तीर्थकर वृषभ सुखदायक ॥ श्रीमतीय जीव श्रेयांसहु, ऋषभनाथ को दान दिय । दुह पात्र दान पतित पवि मल करि, होय सिद्ध सुख अमित लिय ॥४१
दोहा कृत कारित अनुमोदि की, कही सुनी हित धारि।
अति विशेष इच्छा सुनन, महापुराण मझारि ॥४२ इहाँ प्रसन कोळ करै, मिथ्या दृष्टी लोय । वाहिज श्रावक पद क्रिया, कही यथावत होय ॥४३
भाव लिंग मुनि तास घरि, जुगत आहारक नाहि ।
सो मुझकू समझाय कहु, जिम संशय मिटि जाहि ॥४४ अथवा श्रावक दृग सहित, किरिया पात्रे सार । द्रव्य लिंग मुनिराज कों, देय के नहीं आहार ॥४५
छन्द चाल ताके मेटन सन्देह, अब सुनिये कथन सु एह । जैसे सुनियो जिन बानी, तैसे मैं कह बखानी ॥४६
श्रावक की किरिया सार, मिथ्यात न छाडी लार। चरिया दिरियां मुनि राई, आई जो लेइ घटाई ॥४७ मुनि ज्ञानवान जो थोय, निरदोष आहार गहोय । द्रव्य श्रावक को जानि, ताको नहिं दूषन मानि ।।४८ मुनि असन नियम नहिं एह, हग व्रत धारिहि के लेह । किरिया सुध जाकौं होई, तहाँ लेई आहार संक खोई ॥४९ दरसन जुत श्रावक होई, द्रव्य मुनि आवै कोई। जाने बिनु देय अहार, ताों नहीं दोष लगार ॥५०
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