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किशनसिंह-कृत क्रियाकोप श्रावक जाने जो तेह, मिथ्यादृष्टी मुनि एह । जाकों मूल न पडिगाहो, समकित गुण तामै नाहीं ॥५१ निज दरशन को भवि प्राणी, दूषण न लगावै जाणी। जिनके नित इह व्यापार, चालै निज बुद्धि विचार ॥५२ कोक बूझे फिर ऐसें, बिनु ज्ञान सरावग कैसें । मुनि केम परोक्षा जानी, यम हिरदै यान समानी ॥५३
तर सुनि अब अति ठीक. यामै कछु नांहि अलीक । प्रथमहि श्रावक गुण पालै, पातर लखि ले ततकालै ॥५४ अथवा ज्ञानी मुनि पास, सुनि है तिनको परकास । श्रावक श्रावक निज मांही, लखि पात्र कुपात्र बताहीं ॥५५
छप्पय अणागार उत्कृष्ट पात्र की जो विधि सारी । कही यथारथ ताहि धार चित्त में अति प्यारी ।। सुन भवि अवघारि करहु अनुमोदन जाको । निश्चय तसु श्रद्धान किये सुरपद है ताको ।
अब मध्य जघन्य दुहु पात्र को, कहो दान अरु फल यथा । जिन आगम मध्य कह्यो, तिसो सुनो भवि इह कथा ॥५६
. चौपाई मध्यम पात्र सरावग जान, व्योरो पूरव कह्यो बखान । इनमें भेद कहे हैं तीन, उत्तम मध्यम जघन्य प्रवीन ॥५७ श्रावक मध्यम पात्र मझार, भेद एकादश सुनहु बिचार । जाहि यथा विधि जोग अहार, त्यों श्रावक देहें सुखकार ॥५८ इनको दान तणो फल जान, मध्यम भोग भूमि सुख खान । जनमत मात पिता मरि जाँय, जुगल्या छींक जंभाही पाय ॥५९ तनु निज अमृत अंगुठा थकी, तीस पाँच दिन पूरण वकी। उचित कोस दु दुदिन जाय, करै आहार निहार न थाय ॥६० कल्पवृक्ष दशविधि के जास, नाना विधि दे भोग विलास । दुयपल आयु भुंजि सुर होय, मध्य पात्र फल जानो लोय ॥६१ अरु इह कथन महा सुख कार, ग्यारा प्रतिमा में निरधार । आगे कहिये प्रथम सुजान, पुनरुक्त को दोष बखान ॥६२
दोहा मध्य पात्र आहार फल, कह्यो यथावत् सार । अब जघन्य की पात्र विधि सुनहु दान फल कार ।।६३ क्षायिक क्षय-उपशम तृतिय, उपशम तीन प्रकार । इनही गृही आहार दे, यथा योग्य सुखकार ॥६४
चौपाई जघन्य पात्र के दाता जान, जघन्य युगलिया होत प्रमाण । छींक जंभाई ते पितु माय, मरे आप पूरण तनु पाय ॥६५
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