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श्रावकाचार-संग्रह
दिन गुण चासे कोस प्रमाण, आयु पल्य इक भुगते जाण। एक दिवस बीतें आहार, लेई बहेड़ा सम न निहार ॥६६ कल्पवृक्ष दश विधि सुखकार, नाना विधि दे भोग अपार । पूरण आयु करिवि सुर थाय, नाना सुख भुगतें अधिकाय ॥६७
दोहा जघन्य सुपात्र आहार फल, कह्यो जेम जिन वानि । अब कुपात्र आहार फल, सुन लो भवि निज कान ॥६८
चौपाई द्रव्य मुनि श्रावक हू एह, विनु समकित किरिया हूँ तजेह । बाहर समकित कीसी रोत, दरशन बिनु सरधा विपरीत ॥६९ इन तीनहुं कुपात्र को दान, देहि तास फल सुनहु सुजान । जाय कुभोग भूमि के माहि, उपजै मनुष्य हीन अधिकाहिं ॥७० अवर सकल मानव की देह, मुख तिरयंच समान है जेह । हाथी घोड़ा, बैल वराह, कपि गर्दभ कूकर मृग आह ७१ लंब करण अरु इक टंगीया, उपज युगल बराबर भिया । एक पल्य आयुर्बल पूर, माटी मीठा तृण अंकूर ।।७२ तिनहि खाहि निज उदर भरेय, अहै नगन ही मन्दिर केह । मरि विन्तर भावन जोतिसी, हो भुगतै सुख सुरावधि जिसी ॥७३
दोहा अब अपात्र के दान ते, जैसो फल लहवाय । तैसो कछु वरनन करूं, सुनहु चतुर मन लाय ॥७४ जो अपात्र को चिह्न हैं, पूरब कह्यो बनाय । दोष लगै पुनरुक्त को, याते अब न कहाय ॥७५
सोरठा जो अपात्र को दान, मूढ़ भक्ति कर देय हैं । सो अतीव अघ थान, भव भ्रमि हैं संसार में ॥७६
छन्द चाल जैसे ऊखर में नाज, बाहै विन उपज न काज। मिहनत सव जावै यों ही, कण नाज न उपजै क्योंही ॥७७ तिम भूमि अपातर खोटी, पावे विपदादिक मोटी। दूरगति दुख कारण जाणी, तिन दान न कबहं ठानी।।७८ धेनु ने तृण चरवावै, तामें तो दूधहि पादै। अति मिष्ठ पुष्ठ कर भारी, बहुते जिय को सुखकारी ॥७९ तिम पात्रहि दान जो दीजे, ताको फल मोटो लीजे । सुरगति में संशय नाहीं, अनुक्रम शिवथान तहांहीं ॥८० सरपहिं जो दूध पियादे, तापे तो विष को खावै। सो हरे प्राण तत्काल, परगट जानो इह चाल ॥८१
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