SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ श्रावकाचार-संग्रह दिन गुण चासे कोस प्रमाण, आयु पल्य इक भुगते जाण। एक दिवस बीतें आहार, लेई बहेड़ा सम न निहार ॥६६ कल्पवृक्ष दश विधि सुखकार, नाना विधि दे भोग अपार । पूरण आयु करिवि सुर थाय, नाना सुख भुगतें अधिकाय ॥६७ दोहा जघन्य सुपात्र आहार फल, कह्यो जेम जिन वानि । अब कुपात्र आहार फल, सुन लो भवि निज कान ॥६८ चौपाई द्रव्य मुनि श्रावक हू एह, विनु समकित किरिया हूँ तजेह । बाहर समकित कीसी रोत, दरशन बिनु सरधा विपरीत ॥६९ इन तीनहुं कुपात्र को दान, देहि तास फल सुनहु सुजान । जाय कुभोग भूमि के माहि, उपजै मनुष्य हीन अधिकाहिं ॥७० अवर सकल मानव की देह, मुख तिरयंच समान है जेह । हाथी घोड़ा, बैल वराह, कपि गर्दभ कूकर मृग आह ७१ लंब करण अरु इक टंगीया, उपज युगल बराबर भिया । एक पल्य आयुर्बल पूर, माटी मीठा तृण अंकूर ।।७२ तिनहि खाहि निज उदर भरेय, अहै नगन ही मन्दिर केह । मरि विन्तर भावन जोतिसी, हो भुगतै सुख सुरावधि जिसी ॥७३ दोहा अब अपात्र के दान ते, जैसो फल लहवाय । तैसो कछु वरनन करूं, सुनहु चतुर मन लाय ॥७४ जो अपात्र को चिह्न हैं, पूरब कह्यो बनाय । दोष लगै पुनरुक्त को, याते अब न कहाय ॥७५ सोरठा जो अपात्र को दान, मूढ़ भक्ति कर देय हैं । सो अतीव अघ थान, भव भ्रमि हैं संसार में ॥७६ छन्द चाल जैसे ऊखर में नाज, बाहै विन उपज न काज। मिहनत सव जावै यों ही, कण नाज न उपजै क्योंही ॥७७ तिम भूमि अपातर खोटी, पावे विपदादिक मोटी। दूरगति दुख कारण जाणी, तिन दान न कबहं ठानी।।७८ धेनु ने तृण चरवावै, तामें तो दूधहि पादै। अति मिष्ठ पुष्ठ कर भारी, बहुते जिय को सुखकारी ॥७९ तिम पात्रहि दान जो दीजे, ताको फल मोटो लीजे । सुरगति में संशय नाहीं, अनुक्रम शिवथान तहांहीं ॥८० सरपहिं जो दूध पियादे, तापे तो विष को खावै। सो हरे प्राण तत्काल, परगट जानो इह चाल ॥८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy