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दौलतराम-कृत क्रियाकोष ब्याह सगाई पारको, किरिया अव्रत पोष । शीलवन्त नर नहिं करै, जिन त्यागे सहु दोष ॥४३ इत्वरिका कुलटा त्रिया, ताकी है द्वजाति । परिग्रहीता एक है, जाके सामिल खाति ॥४४ अपरिग्रहीता दूसरी जाके, स्वामि न कोय । ए इत्वरिका द्व बिधा, पर पुरुषा-रत होय ॥४५ जिन सों रहनों दूर अति, तिनकों संग तजेय । तिन सों संभाषण नहीं, तबै जनम सुधरेय ॥४६ गमन करै नहिं वा तरफ, विचरै तहाँ न नारि । डारि नारि को नेह नर, धरै व्रत्त अघ टारि ॥४७ तजि अनंग क्रीड़ा सबै, क्रीड़ा अघ की एहि । मदन मारि मन जीति कर, ब्रह्मचर्य व्रत लेहि ॥४८ निज नारी हूतें सुधी, करै न अधिकी प्रीति । भाव तीव्र नहिं काम के, धरै धर्म की रीति ।।४९ कहै अतिक्रम पंच ए, इनमें भला न कोय । ए सब ही तजि या थका, शील निर्मला होय ॥५० नीलो सेठ-सुता शुभा शील व्रत परसाद । देवनि करि पूजा लही, दूरि भयो अपवाद ॥५१ शील प्रभावै जय-प्रिया, शुभ सुलोचना नारि । लही प्रशंसा सुरनि करि, सम्यग्दर्शन धारि ॥५२ शील-प्रमादै राम की, जनकसुता शुभ भाव । पूज्य सुरासुर नरनि करि, भये जगत की नाव ।।५३ सेठ विजय अर सेठनी, विजया शील प्रसाद । भई प्रशंसा मुनिन करि, भये रहित परमाद ।।५४ शुक्ल पक्ष अर कृष्ण पक्ष, धारि शील व्रत तेहि । तीन लोक पूजित भये, जिन आज्ञा उर लेहि ॥५५ सेठ सुदर्शन आदि बह, सीझे शील-प्रताप । नमस्कार या व्रत्त कों, जो मेटै भव-ताप ॥५६ जे सीझे ते शील करि, और न मारग कोय । जनम जरा मरणादि को, नाशक यह व्रत होय ।।५७ धरि कुशील बहु पापिया, बड़े नरक मंझार । तिनको को निरणय करै, कहत न आवै पार ॥५८ रावण खोटे भाव धरि, गये अधोगति माँहि । धवल सेठ नरकें गयो, यामें संशय नाहिं ॥५९ कोटपाल जमदंड शठ, करि कुशील अति पाप । गयो नरक की भूमि में, लहि राजातें ताप ॥६०
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