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श्रीवकाचार-संग्रह
शील समान न धर्म जु होई, नाहिं कुशील समो अघ कोई। जे नर नारि शीलवत धारे, ते निश्चय परब्रह्म निहारें ॥३१ त्यागे दशों दोष व्रतवन्ता, ते सुनि एकचित करि सता । अञ्जन मञ्जन बहु सिंगारा, करना नहीं बतिनकों भारा ||३२ तजिवो तिनको अशन गरिष्ठा, अर तजिवौ संसर्ग सपष्टा । नरकों नारीकों संसर्गा, नारिन को उचित न नरवर्गा ॥३३ है संसर्ग थकी जु विकारा, अर तजिवी तौर्यत्रिक सारा। तौर्यत्रिक को अर्थ जु भाई गीत नृत्य बाजित बजाई ॥३४ मुनि को इनतें कछुह न कामा, श्रावक के पूजा विश्रामा । करे जिनेश्वर पद की पूजा, जिन प्रतिमा बिन और न दूजा ॥३५ अष्टद्रव्य से पूजा करई, तहाँ गीत वादित्र जु धरई । नत्य करै प्रभु जी के आगे, जिनगुन में भविजन मन लागै ॥३६
और न सिंगारादिक गावै, केवल जिनपद सों उर लावै । नारी-विषयनि को संकलपा, तजिवौ बुध को सर्व विकलपा ॥३७ अंग-उपंग निरखनों नाहीं, जो निरखै तो दोष धराही । सतकारादिक नारी जनसों, करनों नाहीं मन-वच-तनसो ॥३८ पूरव भोग-विलास न चितवी, अर आगामी बांछा हरिवौ । सुपनें हैं नहिं मनमथ कर्मा, ए दश दोष तजै ब्रत धर्मा ॥३९ व्रत नहिं शील बराबर कोई, जिनशासन की आज्ञा होई। ..... .... ... ... ... ... ... ... ... ... ... .... ||४०
उक्तंच श्री ज्ञानार्णवमध्ये आद्यं शरीरसंस्कारो द्वितीयं वृष्यसेवनम् । तौर्यत्रिकं तृतीयं स्यात्संसर्गस्तुर्यमिष्यते ॥१ योषिद्विषसंकल्पं पंचमं परिकीर्तितम् । तदंगवोक्षणं षष्ठं सत्कारः सप्तमो मतः ॥२ पूर्वानुभूतसंभोग: स्मरणं स्यात्तदष्टमम् । नवमे भावनी चिन्ता दशमे वस्तिमोक्षणम् ॥३
कवित्त तिय-थल-वासि प्रेम रुचि निरखन, देखि रीझ भाषत मधु बैन, पूरव भोग केलिरस चितवन, गुरु व अहार लेत चित चैन । करि सुचि तन सिंगार बनावत, तिय परजंक मध्य सुख सैन, मनमथ कथा उदर भरि भोजन, ए नव वाड़ि जानि मत जैन ।।४१
दोहा अतीचार सुनि पाँच अब, सुनि करि तजि वर वीर । जब चौथो ब्रत शुद्ध है, इह भाषे मुनि धीर ।।४२
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