SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दौलतराम-कृत क्रियाकोष २९९ तथा होय सो अति उनमन्ता, अंध महा अविवेक प्रभन्ता। जानों प्राण रहन को संसै, अथवा छुटै प्राण निसंसै ॥१३ कहे वेग ए दश दुखदाई, व्यभचारी के उपजें भाई। को लग वर्णन कीजै मित्रा, परदारा सेवें न पवित्रा ॥१४ इही पाप है मेरु समाना, और पाप है सरस्यूँ दाना। याके तुल्य कुकर्म न कोई, सर्व दोष मूल जु सोई ॥१५ नर ते ही पर-दारा त्यागें, नारी जे पर पुरुष न लागें। सर्वोत्तम वह नारि जु भाई, ब्रह्मचर्य आजन्म धराई ॥१६ व्याह करै नहिं जो गुणवन्ती, विषय-भाव त्यागै गुणवन्ती। ब्राह्मी सुन्दरि ऋषभ-सुता जे, रहित विकार सुधर्म-रता जे ॥१७ चेटक पुत्री चंदनबाला, ब्रह्मचारिणी व्रत्त विशाला। बहरि अनन्तमती अति शद्धा, वणिक-सूता व्रत शील प्रबद्धा ॥१८ इत्यादिक की रीति चितारै, निरमल, निरदूषण व्रत पारै। महा सती जाकै न विकारा, विषयनि ऊपरि भाव न डारा ॥१९ आतम तत्त्व लख्यौ निरवेदा, काम कल्पना सबै निषेदा। पुरुष लखै सहु सुत अरु भाई; पिता समाना रंच न काई ।।२० धारै बाल ब्रह्मव्रत शुद्धा, गुरु प्रसाद भई प्रति बुद्धा। ऐसी समरथ नाही पावै, तो पतिव्रत वृत्त धरावै ॥२१ मात पिता की आज्ञा लेती, एक पुरुष धारै विधि सेती। पाणिग्रहण कर सो कुलवन्ती, पतिकी सेव करै गुणवन्ती ॥२२ और पुरुष सह पिता समाना, के भाई पुत्रा करि माना। मेधेश्वर राजा की राणी, तथा राम की राणी जाणी ॥२३ श्रीपाल भूपति की नारो, इत्यादिक कीरति जु चितारी। जग सों विरकत भाव प्रवर्तं, औसर पाय सिताव निवर्तं ॥२४ मैथुन को जाने पशुकर्मा, यह उत्तम नारिन को धर्मा। तजि परिवार जु सम्यकवंती, द्वै आर्या तप संजमवन्ती ।।२५ ज्ञान विवेक विराग प्रभावै, स्त्रीपद छांडि स्वर्गपुर आवै । सुरग माहिं उतकिष्टा सुर कै, बहुत काल सुख लहि पुनि नर है ॥२६ धारे महाव्रत निज ध्यावै, कर्म काटि शिवपुर को जावै । शिवपुर सिद्धक्षेत्रकू कहिये, और न दूजो शिवपुर लहिये ॥२७ शिव है नाम सिद्ध भगवन्ता, अष्टकर्म-हर देव अनन्ता । भुक्ति मुक्तिदायक इह शीला, या धरवे में ना कर ढीला ॥२८ शील सुधारस पान करै जो, अजरामर पद कोय धरे जो। शील बिना नारी धिग जन्मा, जन्म-जन्म पावे हि कुजन्मा ॥२९ रानी राव जशोधर केरी, शील विना आपद बहुतेरी। लही नरक में तातें त्यागौ, कदै कुशीलपंथ मति लागौ ॥३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy