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श्रावकाचार-संग्रह
व्यभिचारी तुल्य न होई, अपराधी जग में कोई । लै नरक निगोद निवासा, पापनि का अति दुख भासा ॥९७ जेते जु अनाचारा हैं, व्यभिचार पिछै सारा हैं । त्यागौ भविजन व्यभिचारा, पालो श्रावक आचारा ॥९८
दोहा मुख्य बारता यह भया, बाल ब्रह्मवत लेय । जो यह व्रत धार न सके, तो इक ब्याह करेय ।।९९ दूजी नारी न जोग्य है, व्रतधारनि को वीर । भोग समान न रोग है, इह धारै उर धीर ॥२०० जो अभिलाषा बहुत है, विषय-भोग की जाहि । तो विवाह औरहु करै, नहिं परदारा चाहि ॥१ परदारा सम पाप नहि, तीन लोक में और। जे सेवे परनारि को, लहैं नरक में ठौर ॥२ नरक मांहि बहु काल लों, दुख देवें अधिकाय । वज्रागनि पुतलीनिसों तिनको अंग तपाय ॥३ जरि जरि तिनकी देह जो, जैसे को तैसो हि । रहै सागरावधि तहां, दुःख सहंता सोहि ॥४ कहिवे में आवें नहीं, नरकवास के कष्ट । ते पावें पापी महा, परदारा तें दुष्ट ॥५ नारक के बहु कष्ट लहि, खोट नर तिर होय । जन्म-जन्म दुरगति हैं, दुख देखें अघ सोय ॥६ अर याही भव में सठा, अपजस दुःख लहेय । राजदण्ड परचण्ड अति, पावें पर-तिय सेय ।।७
बेसरी छन्द जग में धन बल्लभ है भाई, धनहतें जीतव अधिकाई । जीतवतें लज्जा है वल्लभ, लज्जातें नारी नर दुल्लभ ॥८ जे पापी परदारा सेवें, ते बहुतनि की लज्जा लेवें । वैर बढ़े जु बहु सेती वीरा, परदारा सेवें नहिं धीरा ॥९ धन जीतव लज्जा जस माना, सर्व जाय या करि व्रत ज्ञाना । कुलकों लागै बड़ो कलंका, या अघकों निदे अकलंका ।।१० पर-नारी रत पापनि कों, जे दस वेगा उपजें मनसों जे । चिन्ता अर देखन अभिलाषा, पुनि निसास नाखन भय भाषा ।।११ काम-ज्वर होवै परकासा, उपजै दाह महादुख भासा। भोजन की रुचि रहै न कोई, बहुरि महामूरछा होई ॥१२
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